Saturday, October 14, 2017

परमात्मा कहां है और मैं उसे कहां खोजूं?


परमात्मा कहां नहीं है? तुम कहां हो, जो उसे खोजोगे? ठीक प्रश्न यह होगा। तुमने एक बात तो मान ही ली कि मैं हूं, वहीं भूल हो रही है। उसी भूल के कारण दूसरी भूल हो रही है कि परमात्मा कहां है। जब तुम हो तो परमात्मा नहीं हो सकता।


तुमने कभी बच्चों की किताब में एक चित्र देखा? एक जवान स्त्री का चित्र होता है। गौर से देखते रहो तो थोड़ी देर में वह बूढ़ी का चित्र हो जाता है। फिर गौर से देखते रहो तो फिर जवान स्त्री का चित्र हो जाता है। तुमने कभी विचार किया उस चित्र पर? वे ही रेखाएं, जो जवान स्त्री का चेहरा बनाती हैं, वे ही रेखाएं थोड़ा घूम फिर कर बूढ़ी स्त्री का चेहरा बनाती हैं। दोनों एक दूसरे में छिपे हैं। जब तुमने पहली दफा देखा, हो सकता है बूढ़ी दिखाई पड़ी। जब तक तुम्हें बूढ़ी दिखाई पड़ती रहेगी, तब तक जवान नहीं दिखाई पड़ेगी, खयाल रखना। 

अगर तुम देखते रहे, देखते रहे, तो आंखें ज्यादा देर किसी एक चीज पर थिर नहीं रह सकतीं। आंखों का स्वभाव चंचल है। तो जब तक तुम बूढ़ी को देखते रहे, देखते रहे, देखते रहे, थोड़ी देर में आंखें ऊब जाती हैं, अब बूढ़ी को नहीं देखना चाहतीं, अब नये की तलाश शुरू होती है। आंखें चंचल हैं। उस नई तलाश में अचानक तुम पाते हो: अरे, ये रेखाएं तो एक जवान चेहरा बना रही हैं! फिर जवान स्त्री दिखाई पड़ने लगी। जब तुम्हें जवान स्त्री दिखाई पड़ने लगेगी तब तुम यह मत सोचना कि तुम्हें बूढ़ी दिखाई पड़ती रहेगी। दो में से कोई एक ही दिखाई पड़ सकता है। हालांकि तुमने बूढ़ी भी देखी है। ऐसा भी नहीं कि तुमने न देखी हो।

पहली दफा जब देखा था, तब तक तुम्हें पता नहीं था कि दो छिपे हैं। अब तो तुम्हें पता है। तुमने बूढ़ी भी देख ली। तुमने जवान भी देख ली। अब तुम दोनों को एक साथ देखने की कोशिश करना और तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। उस छोटे से चित्र में तुम दोनों को एक साथ कभी न देख पाओगे। एक ही देखा जा सकता है। क्योंकि वे ही रेखाएं जो जवान को बनाती हैं, वे ही रेखाएं बूढ़ी को बनाती हैं। अगर उन रेखाओं की एक व्याख्या दिखाई पड़ रही है जवान तो दूसरी व्याख्या कैसे दिखाई पड़ेगी? दूसरी व्याख्या दिखाई पड़ी कि पहली व्याख्या खो जाएगी।

और ऐसी ही दशा है इस अस्तित्व की। जब तक तुम हो, परमात्मा नहीं। जब परमात्मा है, तुम नहीं। दोनों एक साथ न कभी दिखाई पड़े हैं, न दिखाई पड़ सकते हैं।

पद घुंघरू बांध 

ओशो 

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