Monday, January 1, 2018

ढाई हजार साल



जैसे तुम पीछे लौटोगे, वैसे तुमको एक बात समझ में आएगी, कि जितने पीछे जाओगे इतिहास में, उतनी ही हिंसा स्वीकृत है। यह मनुष्य के आदिम होने का सबूत है। जितने पुराने अवतार हैं, उतने हिंसक हैं।

बुद्ध इस परंपरा में अंतिम अवतार हैं। हिंदुओं के हिसाब से बुद्ध के बाद फिर कोई अवतार नहीं हुआ। कल्कि अवतार होने को है, अभी हुआ नहीं; वह आखिरी अवतार है। बुद्ध आखिरी अवतार हैं। वह पराकाष्ठा है। वह हमारे धर्म की धारणा का शुद्धतम रूप है। जैसे-जैसे आदमी की समझ बढ़ी, बोध बढ़ा, ध्यान बढ़ा, प्रतिभा में चमक आई, वैसे-वैसे उसकी धारणाएं भी बदलीं। स्वभावतः उसके परमात्मा का अर्थ बदला।

अगर तुम पुरानी बाइबिल पढ़ते हो, ओल्ड टेस्टामेंट, तो उसमें ईश्वर खुद घोषणा करता है कि मैं बहुतर् ईष्यालु ईश्वर हूं। जो मेरे खिलाफ जाएगा, मैं उसे छोडूंगा नहीं। मैं उसे इस तरह भुगताऊंगा कि वह याद रखेगा! उसको सड़ाऊंगा नरकों में!

ईश्वर ऐसी भाषा बोलेगा कि मैं बहुतर् ईष्यालु ईश्वर हूं! कि जो मेरे साथ नहीं; वह मेरा दुश्मन! यह तो बड़ी अडोल्फ हिटलर जैसी भाषा हुई। मगर तीन हजार साल पहले यहूदियों का ईश्वर और क्या बोले! यही बात जंचती थी।

यहूदियों का ईश्वर कहता है, जो तुम्हें ईंट मारे--पत्थर से जवाब दो। मगर स्वभावतः यह ईश्वर बुद्ध के सामने फीका मालूम पड़ेगा। क्योंकि बुद्ध कहते हैं, वैर से वैर नहीं मिटता। शत्रुता से शत्रुता नहीं मिटती। शत्रुता मित्रता से मिटती है। जहर जहर से नहीं--अमृत बरसाओ।

यह ईश्वर थोड़ा-सा आदिम मालूम पड़ेगा--प्रीमिटिव, अविकसित, असभ्य--जो कह रहा है, मैंर् ईष्यालु हूं।

जीसस तक आते बात बदली। जीसस ने कहा, अपने शत्रु को भी अपने जैसा प्रेम करो। जीसस ने कहा कि तुमसे पहले कहा गया है...। वे याद दिला रहे हैं पुराने बाइबिल की--कि तुमसे पहले कहा गया है, पुराने पैगंबरों ने तुमसे कहा है कि ईंट का जवाब पत्थर से। मैं तुमसे कहता हूं, नहीं। अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तो दूसरा गाल भी उसके सामने कर देना।

यह थोड़ा विकसित धर्म हुआ। यह थोड़ा परिष्कृत धर्म हुआ। मगर जीसस थे तो यहूदी। जिए तो थे पुरानी ही हवा में; पले तो पुरानी ही हवा में थे, इसलिए भूल गए होंगे यह बात, जब कोड़ा उठाया। कमजोरी के क्षण होते हैं। अभी जीसस कोई सिद्ध पुरुष नहीं थे, जब कोड़ा उठा लिया। ये जब बातें उन्होंने कहीं, तब कवि रहे होंगे। काव्य का झरोखा खुला होगा; ऊंची बातें कह गए। बात ही करनी हो, तो ऊंची कहने में कोई कठिनाई नहीं है। अवसर सिद्ध करते हैं कि बात सच में कही गई थी; प्राणों से आई थी?

स्वभाव! मेरे लिए तो प्रेम ही धर्म है। अहिंसा भी नहीं कहता मैं। प्रेम। क्योंकि अहिंसा शब्द में हिंसा मौजूद है। अहिंसा में निषेध है--विधेय नहीं। मैं महावीर और बुद्ध से आगे धर्म को ले जाना चाहता हूं। महावीर और बुद्ध को हुए ढाई हजार साल हो गए। अगर महावीर और बुद्ध, कृष्ण और राम से धर्म को आगे ले गए, ढाई हजार साल का फासला था महावीर और बुद्ध का कृष्ण से। राम और परशुराम में भी करीब-करीब ढाई हजार साल का फासला था।


इधर मैंने गौर से देखा है, तो पाया है कि हर ढाई हजार साल के फासले पर धर्म एक नई छलांग लेता है। बुद्ध को हुए ढाई हजार साल हो गए। यह एक अपूर्व अवसर है, जिसमें तुम पैदा हुए हो। धन्यभागी हो। क्योंकि ढाई हजार साल ऐसा लगता है, जैसे कि हर एक साल के बाद वसंत आता है--ऐसे हर ढाई हजार साल के बाद मनुष्य की चेतना का वसंत आता है। तब फूल खिलने आसान होते हैं। तब ऋतु तुम्हारे अनुकूल होती है। तब सब मौसम तैयार होता है। तुम ही अकड़े बैठे रहो, तो बात अलग। तुम अगर तैयार हो बहने को, अगर तुम अवसर दो, तो फूल खिल जाएं।


ढाई हजार साल हो गए बुद्ध को हुए। बुद्ध और महावीर दोनों ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया। अहिंसा शब्द का अर्थ है--हिंसा मत करना। यह काफी नहीं है। यह मैं काफी नहीं मानता। हिंसा नहीं करना--यह पर्याप्त नहीं है। किसी को नहीं मारना, यह तो अच्छा है किसी को मारने से। लेकिन किसी को प्रेम करना--उसके मुकाबले यह कुछ भी नहीं।


जैन मुनि किसी की हिंसा नहीं करता। अच्छी बात है। मगर इसके जीवन में प्रेम का कोई लक्षण नहीं होता। हिंसा तो गई, लेकिन प्रेम न आया। कंकड़-पत्थर तो छूटे, लेकिन हीरे-जवाहरात कहां हैं? व्यर्थ तो गया, लेकिन सार्थक कहां है? व्यर्थ को छोड़ा--कृपा की। कंकड़-पत्थर से ही झोली भरी रहती, तो हीरे-जवाहरात के लिए जगह न होती। तुमने झोली खाली कर ली; चलो आधा काम तो किया। मगर अब झोली को भरो--हीरे-जवाहरातों से भरो--तो काम पूरा हुआ। 

तुमने जमीन तैयार कर ली; बगीचा बनाने के लिए क्यारियां खोद लीं; खाद डाल दी--और अब बैठे हो सिर से हाथ लगाए हुए, बड़े विचारक बने, बड़े दार्शनिक बने! अब कोई ऐसे ही थोड़े फूल आ जाएंगे। अब बीज भी बोओ।

जो बोले सो हरी कथा 

ओशो


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