Sunday, February 4, 2018

प्रश्न कुछ बनता नहीं। पता नहीं कुछ पूछना भी चाहती हूं या नहीं। पर आपसे कुछ सुनना चाहती हूं--मेरे लिए। मेरा नाम मत लेना।




योग हंसा,

जैसी तेरी मर्जी! नहीं लेंगे नाम। ऐसे भी किसी का कोई नाम नहीं है। नाम तो बस एक झूठ है! जैसे और बहुत झूठों में हम जीते हैं, वैसे ही नाम को भी अपना मान कर जी लेते हैं। अपना कुछ पता नहीं। और यह बात खलती है, अखरती है कि हमें अपना पता नहीं। तो झूठा पता, झूठा नाम। समझा लेते हैं अपने मन को कि नहीं-नहीं, पता है।


नाम लेकर तू आई नहीं थी, नाम लेकर तू जाएगी भी नहीं। नाम तो बस बीच का झमेला है। दे दिया औरों ने; दे देना जरूरी था; जगत-व्यवहार है। पर भ्रांति हमारी ऐसी है कि व्यवहार को हम सत्य समझ लेते हैं।


लोग नामों के लिए जीते हैं और नामों के लिए मरते हैं। नाम, जो कि सरासर झूठ है! किसका क्या नाम है! हम सब अनाम हैं। हमारे भीतर के सत्य का न तो कोई रूप है, न कोई व्याख्या है, न कोई सीमा है। हम असीम हैं, अनिर्वचनीय हैं, अव्याख्य हैं, हमारा होना विराट है। नाम से बंध कर हम छोटे हो जाते हैं।


नींद में भी तुझे तेरा नाम भूल जाता है, तो मौत की बात ही क्या है! न मालूम कितने तेरे जन्म हुए होंगे और न मालूम कितने तेरे नाम हुए होंगे, अब किसी की भी याद नहीं है। सब पानी पर पड़ी हुई लकीरों जैसे मिट गए। रेत पर बनी लकीर भी नहीं है नाम, क्योंकि रेत पर बनी हुई लकीर भी थोड़ी देर टिके, टिक सकती है, पानी पर खींची गई लकीर है, टिकती ही नहीं। और कितनी बार नहीं हम उसी-उसी भ्रांति में पड़ते हैं।


सूफियों की कहावत है कि आदमी ही अकेला एक गधा है जो उसी गङ्ढे में दोबारा गिरता है। कोई गधा नहीं गिरेगा--उसी गङ्ढे में। एक दहा गिर गया तो समझ गया। गधे भी इतने गधे नहीं हैं। गधों में भी कुछ सूझ-बूझ है। और किसी गङ्ढे में गिर जाए, मगर उसी गङ्ढे में नहीं गिरेगा। एक दफा गिर कर देख लिया। लेकिन आदमी ऐसा गधा है, गङ्ढे भी नहीं बदलता; उन्हीं-उन्हीं गङ्ढों में बार-बार गिरता है, फिर-फिर गिरता है। जैसे आदमी होश में ही नहीं है!


मुल्ला नसरुद्दीन एक रात खूब पीकर लौटा। एक ही झाड़ उसके मकान के सामने हैं--एक नीम का झाड़। डोल रहा था। आंखें चकरा रही थीं, तो एक झाड़ अनेक झाड़ दिखाई पड़ता था। उसे तो लगा कि नीम का एक जंगल लगा हुआ है। बहुत घबड़ाया कि कैसे इस जंगल से निकल जाऊंगा! कहीं टकरा न जाऊं किसी झाड़ से! इतने झाड़! बहुत बचने की कोशिश की, मगर टकरा गया। झाड़ से चोट खाई, पीछे हटा, फिर सम्हला। अब की बार सम्हल कर निकलने की कोशिश की। मगर झाड़ ही झाड़ थे, चारों तरफ झाड़ ही झाड़ थे, बचे भी तो कैसे बचे! फिर टकरा गया। और जब चार-छह बार ऐसा टकराया तो जोर से चिल्लाया कि भाई कोई है, बचाओ, मैं जंगल में खो गया हूं! उसकी पत्नी ने ऊपर से खिड़की खोली और कहा कि कुछ होश की बातें करो। एक नीम का झाड़ है। आवाज मैं भी सुन रही हूं तुम्हारे टकराने की। उससे बचने की कोई जरूरत भी नहीं है।


किसी तरह उसे घर के भीतर ले जाया गया। पूछा पत्नी ने कि एक ही झाड़ था, उससे इतना टकराने की क्या जरूरत थी? तो नसरुद्दीन ने कहा, आत्मरक्षा के लिए। जैसे झाड़ कोई हमला कर रहा हो! और एक झाड़ से कैसे कोई बार-बार टकरा रहा है! उसे एक नहीं दिखाई पड़ रहा है। और यहां तुम्हीं भटके हो, ऐसा नहीं। यहां सभी भटके हैं। तुम जिनसे सलाह लो, वे भी भटके हैं, उन्हें भी बहुत झाड़ दिखाई पड़ रहे हैं।


नसरुद्दीन को उसकी पत्नी ले गई मनोचिकित्सक के पास और कहा कि इनके लिए कुछ करिए, इन्हें कुछ दिनों से एक चीज तीन दिखाई पड़ती है। मनोवैज्ञानिक ने नीचे से ऊपर और चारों तरफ गौर से देखा और कहा, पांचों की तीन चीजें दिखाई पड़ती हैं? उसको एक की चांप चीजें दिखाई पड़ती हैं। यहां तुम्हीं नहीं भ्रांत हो, तुम्हारे सलाहकार तुमसे और भी ज्यादा भ्रांत हैं। तुम्हारे पंडित तुमसे और भी गहरे गङ्ढों में गिरे हैं--शास्त्रीय गङ्ढों में गिरे हैं, शाब्दिक गङ्ढों में गिरे हैं। और उन्होंने अपने गङ्ढों को सुंदर नाम भी दे रखे हैं--कोई हिंदू, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई जैन, कोई बौद्ध। उन्होंने अपने गङ्ढों को सजा भी लिया है। उन गङ्ढों पर मंत्र लिख दिए हैं--गायत्री, नमोकार; कुरान की आयतें खोद दी हैं। फिर तो गिरना ही पड़ेगा। ऐसे पवित्र गङ्ढों में नहीं गिरोगे तो कहां गिरोगे!


आदमी बेहोश है, आदमी के मार्गदर्शक बेहोश हैं। आदमी अंधा है, आदमी के मार्गदर्शक अंधे हैं। अंधे अंधों को चला रहे हैं। किसी को कुछ सूझ नहीं रहा है।


हंसा, तेरा नाम कहां! नाम से ही छुड़ाने को तो यहां तुम्हें निमंत्रण दिया हूं। तुम्हारा नाम इसीलिए तो बदल देता हूं संन्यास देते वक्त। इसलिए नहीं कि नया नाम पुराने नाम से ज्यादा सच्चा है। नाम तो सब एक से झूठे हैं। लेकिन नाम पुराना जड़ हो गया है। बदल देता हूं। पुराना नाम तो तुम्हें मिला था, तब तुम इतने छोटे थे कि तुम्हें उसका होश भी नहीं। सुनते-सुनते सम्मोहित हो गए हो। नाम बदल देता हूं--इस बात का स्मरण दिलाने को कि नाम तो ऊपर चीज है, कभी भी बदला जा सकता है। यूं चुटकी में बदला जा सकता है। जब चाहो तब बदल ले सकते हो।


तुम नाम नहीं हो, यह बोध दिलाने के लिए ही संन्यास में तुम्हारा नाम बदला जाता है, क्योंकि बदलाहट के बीच के क्षण में शायद तुम्हें दिखाई पड़ जाए कि अगर मैं नाम ही होता तो बदलाहट कैसे हो सकती थी!


मगर मूर्च्छा हमारी गहरी है। मूर्च्छा हमारी ऐसी है कि पुराने नाम से हम छूट नहीं पाते तो नये से पकड़ लेते हैं, नये से जकड़ जाते हैं। फिर नये को हम जोर से पकड़ लेते हैं। हमारी मुट्ठी नहीं खुलती। कुछ न कुछ पकड़ने को चाहिए। हम मुट्ठी खोलने से घबड़ाते हैं कि कहीं मुट्ठी खाली है, ऐसा दिखाई न पड़ जाए!

प्रीतम छवि नैनन बसी 

ओशो

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