Saturday, August 4, 2018

आपके पास कोई नया विचार या जीवन-दर्शन नहीं है। और एक ओर आप स्वयं गीता, बाइबिल, कुरान आदि धर्मग्रंथों द्वारा प्रतिपादित धर्मों को नहीं मानते, फिर आप उनके विचारों की चोरी क्यों करते हैं?

 
सत्य वेदांत,

विचार कभी भी नया नहीं होता। विचार का स्वभाव ही उसे नया नहीं होने दे सकता। मौलिकता और विचार विपरीत आयाम हैं। विचार तो हमेशा ही बासा होता है; क्योंकि शब्द बासे होते हैं, भाषा बासी होती है।


अनुभूति मौलिक होती है। जीवन-सत्य का साक्षात्कार मौलिक होता है। लेकिन जैसे ही जीवन-सत्य को भाषा का वेश दिया, जैसे ही जीवन-सत्य को अभिव्यक्ति दी, वैसे ही उसकी मौलिकता आच्छादित हो जाती है।


इसलिए जो लोग कहते हैं कि मेरे पास कोई नया विचार नहीं, वे सोचते होंगे मेरी आलोचना कर रहे हैं, लेकिन वस्तुतः अनजाने वे मेरे सत्य का प्रचार कर रहे हैं।


मैंने कभी कहा नहीं कि विचार मौलिक होता है। मैंने कभी कहा नहीं कि यह विचार मेरा है। मैं कैसे मौलिक होगा? मैं तो उधार है। मेरा का भाव भी उधार है। लेकिन मैं और मेरे के पीछे भी कुछ है--चैतन्य है, साक्षी है। और उस चैतन्य में जागना, उस चैतन्य में डूबना, उस चैतन्य से आपूरित हो जाना--वह मौलिक है, वह कभी भी बासा नहीं, वह कभी उधार नहीं। लेकिन वहां मैं की कोई सीमा नहीं, वहां मैं की कोई पहुंच नहीं। इसलिए जो मौलिक है वह अस्तित्व का है; और जो उधार है वह अहंकार का है।


अब मेरी भी मजबूरी है। और मेरी ही नहीं, जिन्होंने जाना उन सबकी यही मजबूरी रही। बोलना तो पड़ेगा भाषा में, क्योंकि जिनसे बोलना है उनके पास मौन को समझने की कोई क्षमता नहीं। जो जाना है वह मौन में जाना है, और जिनसे कहना है उन्हें मौन का कुछ पता नहीं। तो भाषा का उपयोग करना होगा। और भाषा का उपयोग किया कि अनुभूति की ताजगी गई, अनुभूति का जीवन गया। भाषा आई कि अनुभूति को मौत आई। अनुभूति तो ताजी होती है, जीवंत होती है, जैसे सुबह की ओस की ताजगी, नये-नये खिले फूल की ताजगी--लेकिन अनुभूति रहे अनुभूति तो ही; भाषा के वस्त्र पहनाए कि बस बात खोनी शुरू हो गई।


फिर और भी अड़चनें हैं। मैं जब कुछ कहूंगा तो तुम वही थोड़े ही सुनोगे जो मैंने कहा; तुम वह सुनोगे जो तुम सुन सकते हो। तुम्हारी बंधी धारणाएं हैं, तुम्हारे अपने पक्षपात हैं। उन्हीं पक्षपातों की आड़ से सुनोगे। सुनोगे नहीं--भाषांतर करते रहोगे, अपना रंग पहनाते रहोगे, अपना ढंग देते रहोगे। कहूंगा तो मैं, लेकिन सुनोगे तो तुम, और तुम आ जाओगे उस सब में जो मैंने कहा। तुम तक पहुंचते-पहुंचते वह बात मेरी न रह जाएगी, तुम्हारी हो जाएगी। और अगर तुमने फिर किसी को वह बात कही, तब तो सत्य हजारों कोस दूर छूट जाएगा।


राम नाम जान्यो नहीं


ओशो

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