Sunday, September 2, 2018

हेतु के साथ प्रधानमंत्री के चरण छूने में और हेतु के साथ संत के चरण छूने में क्या कुछ भी फर्क नहीं है?




आत्यंतिक अर्थों में तो कुछ भी फर्क नहीं है।


जहां हेतु है वहां वासना है। जहां वासना है वहां झुकना कैसा; वहां झुकना धोखा है। फिर तुम किसके सामने झुकते हो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। तुम प्रधानमंत्री के सामने झुकोगे, क्योंकि उससे कुछ मिलने की आशा है। तुम किसी संत के सामने झुकोगे, क्योंकि उससे भी कुछ मिलने की आशा है। मगर मिलने की आशा से झुक रहे हो। तुम अपने लोभ के ही सामने झुक रहे हो।


शक्तिशाली के सामने झुक जाते हो, क्योंकि उसके पास जगत् की सत्ता है। और संत के सामने झुक जाते हो, क्योंकि लगता है इसके पास परमात्मा की सत्ता है, परमात्मा की शक्ति है। लेकिन तुम झुक किसलिए रहे हो? तुम्हारा कोई हेतु है? तुम कुछ मांगने के लिए झुक रहे हो? अगर तुम कुछ मांगने के लिए झुक रहे हो तो तुम्हारे झुकाव में लोभ है। फिर तुम कहां झुकते हो . . . परमात्मा के सामने भी झुको तो कोई फर्क नहीं पड़ता।


इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि जिनकी प्रार्थना में मांग है, उनकी प्रार्थना जन्म के पहले ही मर गई। परमात्मा से मांगना ही मत। वह परमात्मा का अपमान है। तुम्हारी प्रार्थना भी खराब हो गई और तुमने परमात्मा का भी अपमान किया। और उलटा पाप लगा। इससे तो न प्रार्थना करते तो बेहतर था।


परमात्मा की प्रार्थना का तो अर्थ यही होता है कि अकारण झुके। अहैतुकी! अब तुम्हारा कोई हेतु नहीं है। झुकने में मजा आया, इसलिए झुके। स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा। मजा आया। स्वान्तः सुखाय। कुछ और नहीं मांगना है। यह झुकने में ही आनंद आया। अकारण। कोई लक्ष्य नहीं। कोई उद्देश्य नहीं। उद्देश्य आया कि गंदगी आई। उद्देश्य आया कि संसार आया। हेतु अर्थात् संसार।


अजहुँ चेत गँवार 

ओशो



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