Thursday, October 24, 2019


पूरब के सभी धर्म इस बात पर सहमत हैं कि मौन की अंतिम उच्चतम दशा में जो नाद सुनाई पड़ता है वह ओम के ही समान है।


पूरब की किसी भाषा में ओम को वर्णमाला में नहीं लिखा जाता है, क्योंकि यह भाषा का अंग नहीं है। यह एक प्रतीक के रूप में लिखा जाता है। इसलिए जो प्रतीक संस्कृत में प्रयोग किया जाता है, वही प्राकृत में, पालि में और तिब्बती में- सब जगह एक ही प्रतीक- क्योंकि सभी कालों के सभी रहस्यदर्शी एक ही अनुभव पर पहुंचे हैं कि यह लौकिक जगत का हिस्सा नहीं है; इसलिए इसे स्वर्णाक्षरों में नहीं लिखा जाना चाहिए। इसका अपना ही प्रतीक होना चाहिए, जो भाषा के पार का हो।


सभी संगीत- खासकर शास्त्रीय संगीत- मौन के नाद को पकड़ने का प्रयास करते रहे हैं, ताकि वे लोग भी कुछ वैसा ही अनुभव कर सकें जिन्होंने अपनी अंतरात्मा में प्रवेश नहीं किया है। किंतु वह संगीत वैसा नहीं होता। यह बहुत दूर की प्रतिध्वनि है। यहां तक कि महान संगीतज्ञों को भी ध्वनि का उपयोग करना पड़ता है। लेकिन वह उसे कितने ही सुंदर ढंग से क्यों न व्यवस्थित करे, वह संगीत पूर्णतः मौन नहीं हो सकता। संगीतज्ञ ध्वनियों के बीच मौन का अंतराल पैदा करता है, उसका सारा खेल ध्वनि और मौन का है। जो नहीं समझते हैं, वे ध्वनि को सुनते हैं। जो समझते हैं, वे मौन को सुनते हैं, दो ध्वनियों के बीच के अंतराल को सुनते हैं।

वास्तविक संगीत इन अंतरालों में है। इसे संगीतज्ञ पैदा नहीं करते। संगीतज्ञ तो ध्वनियां पैदा करता है,  तरालों को छोड़ता जाता है, ताकि तुम उसका कुछ अनुभव कर सको जो रहस्य दर्शियों को उनके अंतःलोक में घटित होता है।

ओम सत्य के खोजियों की सबसे बड़ी उपलब्धि है। ऐसी अनेक घटनाएं हैं जो पूरी तरह अविश्वसनीय हैं, किंतु वे ऐतिहासिक हैं।


मारपा- एक तिब्बती रहस्यदर्शी- जब मरा, उसके निकटतम शिष्य उसके चारों ओर बैठे हुए थे...  क्योंकि एक रहस्यदर्शी की मृत्यु उतनी ही महत्त्वपूर्ण होती है जितना उसका जीवन, या शायद कुछ अधिक ही। यदि तुम किसी रहस्यदर्शी की मृत्यु के समय उसके निकट हो सको तो उस समय तुम बहुत कुछ अनुभव कर सकते हो; क्योंकि उसकी संपूर्ण चेतना शरीर का त्याग कर रही है और यदि तुम सावधान और जागरूक हो तो तुम एक नई सुगंध का अनुभव कर सकते हो, एक नया प्रकाश देख सकते हो, एक नया संगीत सुन सकते हो।


मारपा जब मरा, वह एक मंदिर में रहता था। और अचानक शिष्य आश्चर्यचकित हो गए, वे अपने चारों ओर देखने लगे कि ओम का यह नाद कहां से आ रहा है। अंततः उन्होंने पाया कि यह नाद कहीं दूसरी जगह से नहीं बल्कि मारपा की देह से आ रहा है। उन लोगों ने अपने कान उसके हाथों से, पैरों से लगाकर सुना, वे भरोसा न कर सके- उसके संपूर्ण शरीर के भीतर कुछ तरंगायित था जो ओम का नाद पैदा कर रहा था। संबोधि के बाद मारपा जीवन भर इस नाद को सुनता रहा था। इस नाद को निरंतर भीतर सुनते रहने के कारण यह उसके भौतिक शरीर की कोशिकाओं तक में प्रवेश कर गया था। उसके शरीर का रेशा-रेशा एक विशिष्ट समस्वरता सीख गया था।


लेकिन ऐसा दूसरे रहस्यदर्शियों द्वारा भी अनुभव किया गया है। खासकर मृत्यु के क्षण में, जब सब कुछ अपने चरम बिंदु पर होता है, अंतर उस नाद की तरंगों को विकर्ण करने लगता है। लेकिन मनुष्य इतना अंधा और इतना अविवेकी है कि यह जानकर कि रहस्यदर्शी अपने भीतर मौन के संगीत को अनुभव करते हैं और वे इसे ओम कहते हैं, लोग ओम को मंत्र की तरह जपने लगे; यह सोच कर कि ओम के जाप से वे भी उसे सुनने में सक्षम हो जाएंगे।


इसको जपने से उस नाद को तुम कभी नहीं सुन सकोगे। जप करते समय तुम्हारा मन ही काम कर रहा है।
लेकिन इस बात को तुमसे कहने वाला संभवतः मैं पहला व्यक्ति हूं। अन्यथा सदियों से लोग ओम का जाप सिखा रहे हैं। वह एक मिथ्यानुभव पैदा करता है। और तुम मिथ्या में खो जा सकते हो और असली को कभी अनुभव नहीं कर सकोगे।


मैं तुमसे इसे जपने को नहीं कहता, बस शांत हो जाओ और इसे सुनो। जैसे तुम्हारा मन शांत और स्थिर होता है, अचानक तुम पाओगे कि एक फुसफुसाहट की तरह तुम्हारी अंतरात्मा में ओम उठ रहा है। जब यह स्वयं से पैदा होता है तो इसका गुणधर्म बिल्कुल अलग होता है। यह तुम्हें रूपांतरित कर देता है।


आधुनिक भौतिक विज्ञान कहता है कि संसार में सब कुछ विद्युत-ऊर्जा से बना है; और ध्वनि भी अन्य कुछ नहीं, विद्युत-तरंगें हैं। वैज्ञानिक बाहर से काम करते रहे हैं।


रहस्यदर्शी ठीक इसके विपरीत कहते हैं। लेकिन मैं उनमें विरोध नहीं देखता। रहस्यदर्शियों के अनुसार यह संपूर्ण अस्तित्त्व ध्वनिरहित ध्वनि- ओम- से बना है। यह विद्युत और अग्नि भी अन्य कुछ नहीं, ध्वनि का ही सघन रूप हैं।


पूरब में यह बात ज्ञात थी। ऐसे संगीतज्ञ हुए हैं जो अपने संगीत से दीपक को जला सकते थे। जैसे ही संगीत बुझे हुए दीपक के संपर्क में आता है, एकाएक लौ जल उठती है। अतीत में यह एक परीक्षण था कि कोई संगीतज्ञ जब तक अपने संगीत से प्रकाश, अग्नि, लौ नहीं उत्पन्न कर देता, वह अपरिपक्व समझा जाता था। वह सिद्ध आचार्य नहीं समझा जाता था।


भौतिकशास्त्र और रहस्यदर्शी की व्याख्याएं परस्पर विरोधी दिखाई पड़ती हैं, किंतु गहरे में संभवतः कोई स्रोत है जो विरोधाभासों और प्रतिरोधों को समाप्त कर सकता है। संभवतः ये मात्र भिन्न ढंग से व्याख्या करने का मामला है, क्योंकि रहस्यदर्शी भीतर से देख रहा है और भौतिकशास्त्री बाहर को। भौतिकशास्त्री जिसे विद्युत की तरह महसूस करता है, रहस्यदर्शी उसे संपूर्ण अस्तित्त्व के संगीत की तरह अनुभव करता है। वे दोनों भिन्न-भिन्न भाषाओं में कह रहे हैं। और अगर दोनों के बीच चुनाव करना पड़े तो मैं रहस्यदर्शी को चुनूंगा, क्योंकि वह उसे अपने केंद्र पर अनुभव कर रहा है। उसका अनुभव वस्तुओं पर किए गए प्रयोग का नहीं है। उसकी अनुभूति अपनी चेतना पर किए गए प्रयोग की है और चेतना अस्तित्त्व का नवनीत है।

ॐ मणि पद्मे हुम् 

ओशो

Wednesday, October 23, 2019

एक और मित्र ने पूछा कि मैं गांधी जी को नैतिक ही पुरुष मानता हूं, धार्मिक या आध्यात्मिक नहीं! धार्मिक और नैतिक में क्या भेद है? फिर मैं गांधीवादियों को भी नैतिक ही कहता हूं तब गांधी जी और उनके अनुयायियों में क्या कोई भेद नहीं है?


साधारणतः ऐसा समझा है कि जो नैतिक है, वह धार्मिक है। यह बड़ी भूलभरी दृष्टि है। धार्मिक तो नैतिक होता है, लेकिन नैतिक धार्मिक नहीं!

धार्मिक वह है जिसने जीवन के सत्य को जाना। यह अनुभूति विस्फोट, एक्सप्लोजन की भांति उपलब्ध होती है। उसका क्रमिक, ग्रेजुअल विकास नहीं होता। जीवन के तथ्यों के प्रति समग्ररूपेण जाग कर जीने से जीवन के सत्य का विस्फोट होता है। उस विस्फोट की भूमिका जाग कर जीना है। प्रज्ञा, अमूर्च्छा, या अप्रमाद अवेयरनेस से वह विस्फोट घटित होता है। योग या ध्यान जागरण की प्रक्रियाएं हैं।

विस्फोट को उपलब्ध चेतना का आमूल जीवन बदल जाता है। असत्य की जगह सत्य, काम की जगह ब्रह्मचर्य, क्रोध की जगह क्षमा, अशांति की जगह शांति, परिग्रह की जगह अपरिग्रह या हिंसा की जगह अहिंसा का आगमन अपने आप ही हो जाता है। उन्हें लाना नहीं पड़ता है। न साधना ही पड़ता है। उनका फिर कोई अयास नहीं करना होता है। वह रूपांतरण सहज ही फलित है।
मूर्च्छा में, निद्रा में, सोये हुए व्यक्तित्व में जो था, वह जागते ही वैसे ही तिरोहित हो जाता है, जैसे कि प्रकाश के जलते ही अंधकार विलीन हो जाता है।

इसलिए धार्मिक व्यक्ति असत्य, या ब्रह्मचर्य या हिंसा को दूर करने या उनसे मुक्त होने की चेष्टा नहीं करता है। उसकी तो समस्त शक्ति जागने की दिशा में ही प्रवाहित होती है। वह अंधकार से नहीं लड़ता है, वह तो आलोक को ही आमंत्रित करता है।

लेकिन, नैतिक व्यक्ति अंधकार से लड़ता है। वह हिंसा से लड़ता है, ताकि अहिंसक हो सके, वह काम से लड़ता है ताकि अकाम्य हो सके। लेकिन हिंसा से लड़ कर कोई हिंसा से मुक्त नहीं हो सकता है। न ही वासना से लड़ कर कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। ऐसा संघर्ष दमन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कर सकता है। हिंसा अचेतन अनकांशस में चली जाती है और चेतन मन अहिंसक प्रतीत होने लगता है। यौन, सेक्स अंधेरे चित्त में उतर जाता है और ब्रह्मचर्य ऊपर से आरोपित हो जाता है। इसलिए ऊपर से देखने और जानने पर धार्मिक व्यक्ति और नैतिक व्यक्ति एक से दिखाई पड़ते हैं। लेकिन वे एक से नहीं हैं।

नैतिक व्यक्ति शीर्षासन करता हुआ अनैतिक व्यक्ति ही है, लेकिन सोया हुआ ही। उसके जीवन में कोई क्रांति घटित नहीं हुई है। इसीलिए नीति को क्रमशः साधना होता है।

नीति विकास, एवोल्यूशन है, धर्म क्रांति, रेवोल्यूशन है। नीति धर्म नहीं है। वह धर्म का धोखा है। वह मिथ्या-धर्म, सूडो रिलीजन है। और वह धोखा प्रबल है। तभी तो गांधी जैसे भले लोग भी उसमें पड़ जाते हैं। वे धार्मिक ही होना चाहते थे। लेकिन नीति के रास्ते पर भटक गए। और ऐसा नहीं है कि इस भांति वे अकेले ही भटके हों। न मालूम कितने तथाकथित संत और महात्मा ऐसे ही भटकते रहे हैं। इसीलिए जीवन के अंत तक वे सत्य के प्रयोगही करते रहे, लेकिन सत्य उन्हें उपलब्ध नहीं हो सका। और उनकी अहिंसा में भी इसीलिए छिपी हुई हिंसा के दर्शन होते हैं। और स्वयं के ब्रह्मचर्य पर भी वे स्वयं ही संदिग्ध थे। और स्वप्न में उन्हें कामवासना पीड़ित भी करती थी। दमन से ऐसा ही होता है। दमन का यही स्वाभाविक परिणाम है। इसीलिए धार्मिक होने की कामना से भरे हुए गांधी धार्मिक ने हो सके। लेकिन धार्मिक होने की इच्छा तो उनमें थी। और जो उन्हें ठीक लगता था उसे वे निष्ठापूर्वक करते थे। शायद इस जीवन की असफलता उन्हें अगले जीवन में काम आ जाए। आदमी भूल से ही तो सीखता है।

 
पहली भूल है अनीति। फिर दूसरी भूल है नीति। अनीति से आनंद पाने में असफल हुआ व्यक्ति नीति की ओर मुड़ जाता है। और फिर नीति भी जब असफलता ही लाती है तभी धार्मिक यात्रा शुरू होती है।

 
मैं मानता हूं कि गांधी ने इस जीवन में नैतिकता की असफलता भी भलीभांति देख ली है। लेकिन, उनके शिष्य यह भी नहीं देख पाए हैं। क्योंकि वे नैतिक भी बे-मन से थे।


नैतिकता गांधी के लिए साधना थी। उससे वे स्वयं धोखे में पड़े, लेकिन उससे वे किसी और को धोखे में नहीं डालना चाहते थे। अनके अनुयायी के लिए नैतिकता आवरण थी, जिससे वे केवल दूसरों को धोखे में डालना चाहते थे। इसीलिए जब सत्ता आई तो गांधी ने सत्ता की बागडोर हाथ में लेने से इनकार कर दिया। क्योंकि उनका दमन हार्दिक था। वे अपने हाथों से अपनी दमित जीवन-व्यवस्था को प्रतिकूल परिस्थितियों में नहीं छोड़ सकते थे। क्योंकि उन प्रतिकूल परिस्थितियों में उस जीवन भर साधी गई व्यवस्था के टूट जाने का भय था। इसीलिए गांधी सत्ता से बचे। लेकिन उनके अनुयायी सत्ता की ओर अपने सब आवरणों को छोड़ कर भागे। और फिर सत्ता ने उनकी सारी कागजी नैतिकता में आग लगा दी। वे स्पष्ट ही अनैतिक हो गए।

 
यदि गांधी सत्ता में जाते तो उनकी नैतिक व्यवस्था भी टूटती। लेकिन इससे वे अनैतिक नहीं हो जाते वरन धार्मिक होने की उनकी खोज शुरू होती। तब नैतिकता भी साधी जा सकती है यह उनका भ्रम टूटता। और वे उस धर्म की ओर बढ़ते जो कि नीति के अयास और अंतःकरण, कांशस के निर्माण से नहीं, वरन जागरण अवेयरनेस और चेतना कांशसनेस को सतत और भी सचेतन करने से उपलब्ध होता है। यही गांधी और गांधीवादियों में भेद था।

अस्वीकृति में उठा हाथ 

ओशो

Tuesday, October 22, 2019

विचार से तादात्म्य


स्वामी रामतीर्थ अमरीका से वापस लौटे। सारे यूरोप में, सारे अमरीका में उन्होंने बड़ी तत्वदर्शन की चर्चा की। उनका बड़ा प्रभाव हुआ। लाखों-करोड़ों लोगों ने उन्हें पूजा और माना। फिर वे भारत वापस लौट आए। फिर वे कुछ दिन तक हिमालय में थे। उनकी पत्नी उनसे मिलने गई, तो स्वामी राम ने मिलने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, मैं नहीं मिलूंगा। तो उनके पास सरदार पूर्णसिंह नाम के एक व्यक्ति रहते थे, वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा कि मैंने आपको कभी किसी स्त्री को इनकार करते नहीं देखा। यूरोप में, अमरीका में हजारों स्त्रियां आपसे मिलीं और आपने कभी किसी को इनकार नहीं किया। इस स्त्री को इनकार क्यों करते हैं? क्या किसी तल पर अब भी इसे अपनी पत्नी नहीं मान रहे हैं? छोड़ कर चले गए थे उसे। लेकिन अपनी पत्नी से मिलने को इनकार कर रहे हैं। जरूर किसी तल पर वे मान रहे हैं कि वह पत्नी उनकी है। अन्यथा और स्त्रियां आती हैं, उन्हें मिलने से इनकार उन्होंने कभी किया नहीं।

जब तक आपका विचार पर ममत्व है, तब तक आप इस भ्रम में मत रहें कि आप कुछ भी छोड़ सकते हैं। क्योंकि असली पकड़ और संपत्ति तो केवल विचार की है, बाकी सारी चीजें बाहर हैं, उनकी कोई पकड़ नहीं है। पकड़ तो सिर्फ विचार की है। तो वह जो विचार का घेरा है, वह जो विचार की संपत्ति है, जिससे आपको लगता है कि मैं कुछ जानता हूं। विचारणीय है, क्या उसमें कुछ भी आपका है?

एक बहुत बड़ा साधु था। कुछ ही दिन पहले उसके आश्रम में एक युवा संन्यासी आया। दो-चार-दस दिन तक उस संन्यासी की बातें उसने सुनीं। वह जो वृद्ध साधु था, उसकी बातें बड़ी थोड़ी सी थीं। और युवा संन्यासी थक गया उन्हीं-उन्हीं बातों को बार-बार सुन कर और उसने सोचा, इस आश्रम को छोडूं, यहां तो सीखने को कुछ दिखाई नहीं पड़ता। और तभी एक और संन्यासी का आगमन आश्रम में हुआ। रात्रि को उस संन्यासी ने जो चर्चा की, वह बहुत अदभुत थी, बहुत गंभीर थी, बहुत सूक्ष्म थी, बहुत गहरी थी। यह युवा संन्यासी उसकी बातें सुना, उस आगंतुक संन्यासी की, अतिथि की, और इसको लगा कि गुरु हो तो ऐसा हो, जिसके पास ऐसा ज्ञान है, इतना गंभीर और गहरा। और एक यह वृद्ध संन्यासी है, जिसके आश्रम में मैं रुका हूं आकर। इसको तो थोड़ी सी बातें आती हैं, और कुछ आता नहीं। फिर उसे यह भी लगा कि यह वृद्ध संन्यासी इस युवा संन्यासी की बातें सुन कर मन में कैसा दुखी नहीं होता होगा? कैसा इसे नहीं अपमान अनुभव होता होगा? यह तो कुछ भी नहीं जानता। जीवन इसने व्यर्थ गंवा दिया है।

उस नये आए साधु ने अपनी बात पूरी की और गौरव से सबकी तरफ देखा कि उन पर क्या प्रभाव पड़ा। उसने वृद्ध साधु की तरफ भी देखा। वह वृद्ध साधु बोला कि मैं दो घंटे से बहुत स्मृतिपूर्वक सुन रहा हूं, लेकिन मैं देखता हूं कि तुम तो बोलते ही नहीं।

उस संन्यासी ने कहा, आप पागल तो नहीं हैं? दो घंटे से मैं ही बोल रहा हूं, और तो सब लोग चुप हैं। और आप कहते हैं कि दो घंटे से आप सुन रहे हैं और मैं बोलता नहीं हूं!

उस साधु ने कहा, निश्चित ही मैंने बहुत गौर से सुना, तुम कुछ भी नहीं बोले। जो भी तुम बोले, सब दूसरों का है। कोई विचार तुम्हारी अपनी अनुभूति से नहीं है। और इसलिए मैं कहता हूं कि तुम नहीं बोले। दूसरे तुम्हारे भीतर से बोले, लेकिन तुम नहीं बोले।

विचार की मुक्ति के लिए और विचार की स्वतंत्रता के लिए और विवेक के जागरण के लिए, पहली बात, पहला बोध, विचार कोई भी मेरा नहीं है। कोई भी विचार मेरा नहीं है। वह जो मेरे का संबंध है विचार से, उसे देख लें, वह आपका सच नहीं है, वह झूठ है। कोई विचार मेरा नहीं है। वह जो तादात्म्य है विचार से, उसे तोड़ दें।

हम हर विचार से अपना तादात्म्य कर लेते हैं। हम कहते हैं: जैन धर्म मेरा; हिंदू धर्म मेरा; राम मेरे; कृष्ण मेरे; क्राइस्ट मेरे; हम तादात्म्य कर लेते हैं। हम अपने मैं से उनको जोड़ लेते हैं। बड़ा आश्चर्य है!

कोई विचार आपका नहीं है। कोई धर्म आपका नहीं है। यह स्मरणपूर्वक अगर प्रज्ञा में प्रतिष्ठित हो जाए यह बोध कि कोई विचार मेरा नहीं है। आप सारे विचारों को फैला कर देख लें, वे कहीं से आए होंगे। जैसे वृक्ष पर आते हैं पक्षी और संध्या बसेरा करते हैं, ऐसे ही विचार मन में आते और निवास करते हैं। आप केवल एक धर्मशाला की तरह हैं, जहां लोग ठहरते हैं और चले जाते हैं।

अमृत की दशा 

ओशो

Monday, October 21, 2019

आपने कहा कि यदि हम राम की झलकियां देख पाते है या कल्पना करते हैं कि हम कृष्‍ण के साथ नृत्य कर रहे हैं तो ध्यान रखें कि यह केवल कल्पना हो लेकिन अभी पिछली एक रात आपने कहा कि यदि हम ग्रहणशील हैं तो हम बिलकुल अभी बुद्ध या जीसस या कृष्ण से संपर्क बना सकते हैं। तो क्या यह मिलन भी कल्पना है, या ऐसी ध्यानमग्न अवस्थाएं हैं जिनमें क्राइस्ट या बुद्ध वास्तव में वहां होते हैं?


पहली बात: सौ में से, निन्यानबे घटनाएं तो कल्पना द्वारा होंगी। तुम कल्पना कर लेते हो इसीलिए कृष्ण ईसाई को कभी दिखाई नहीं पड़ते और मोहम्मद कभी हिंदू को नहीं दिखाई पड़ते। हम मोहम्मद और जीसस को भूल सकते हैं, वे बहुत दूर है। जैन के सामने राम के दर्शन की झलकियां कभी प्रकट नहीं होतीं, वे नहीं दिख सकते। हिंदू के सामने महावीर कभी प्रकट नहीं होते। क्यों? क्योंकि महावीर की तुम्हारे पास कोई कल्पना नहीं।

यदि तुम जन्म से हिंदू हो, तो तुम राम और कृष्ण की अवधारणा पर पले हो। यदि तुम जन्म से ईसाई हो, तब तुम पले होतुम्हारा कम्प्यूटर, तुम्हारा मन पला है जीसस की धारणा, जीसस की प्रतिमा के साथ। जब कभी तुम ध्यान करना शुरू करते हो, वह पोषित प्रतिमा मन में चली आती है, वह मन में प्रक्षेपित हो जाती है।

जीसस ईसाई व्यक्ति को दिखते हैं, लेकिन यहूदियों को कभी दिखाई नहीं देते जीसस। और वे यहूदी थे। जीसस यहूदी की तरह जन्मे और यहूदी की तरह मरे। लेकिन वे यहूदियों को दिखाई नहीं देते, क्योंकि उन्होंने उनमें कभी विश्वास नहीं किया। वे लोग सोचते थे जीसस मात्र एक आवारा है। उन्हें एक अपराधी की तरह सूली पर चढ़ा दिया उन्होंने। इसलिए जीसस यहूदियों को कभी नहीं जँचे। लेकिन वे यहूदियों के संबंधी थे। उनकी धमनियों में यहूदी खून था।

लेकिन जीसस यहूदियों के सामने कभी प्रकट नहीं होते और वे ईसाई न थे। वे किसी ईसाई चर्च से संबंधित न रहे थे। यदि वे वापस आ जायें, वे ईसाई चर्च को पहचानेंगे भी नहीं। वे सिनागोग की ओर बढ़ जायेंगे। वे यहूदी संप्रदाय में जा पहुंचेंगे। वे किसी रबाई से मिलने चले जायेंगे। वे कैथोलिक या प्रोटेस्टेंट पादरी से मिलने नहीं जा सकते। वे उन्हें नहीं जानते। लेकिन यहूदियों को वे कभी दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि उनकी कल्पनाओं में वे कभी बीज की तरह पड़े नहीं। उन्हें अस्वीकृत कर दिया था उन्होंने, तो बीज वहां नहीं है।

इसलिए जो कुछ घटित होता है, निन्यानबे संभावनाएं ऐसी हैं कि वह केवल तुम्हारा पोषित ज्ञान, धारणाएं और प्रतिमाएं होती होंगी। वे तुम्हारे मन के सामने झलक जाती हैं। और जब तुम ध्यान करने लगते हो, तो तुम इतने संवेदनशील हो जाते हो कि तुम स्वयं अपनी कल्पनाओं के शिकार हो सकते हो। और तुम्हारी कल्पनाएं बहुत वास्तविक लगेंगी। और इसे जांचने का कोई रास्ता नहीं है कि वे वास्तविक होती हैं या अवास्तविक।


केवल एक प्रतिशत मामलों में यह काल्पनिक न होगा, लेकिन पता कैसे चले? उन एक प्रतिशत मामलों में वास्तव में वहां किसी धारणा की कोई छबि होगी ही नहीं। तुम यह अनुभव नहीं करोगे कि जीसस सूली पर चढ़े हुए तुम्हारे सामने खड़े हैं; तुम नहीं अनुभव करोगे कि कृष्ण तुम्हारे सामने खड़े हैं या तुम उनके सामने नाच रहे हो। तुम उनकी उपस्थिति को अनुभव करोगे, लेकिन कोई प्रतिमा न होगी, इसे ध्यान में रखना। तुम एक दिव्य उपस्थिति का अवतरण अनुभव करोगे। तुम किसी अज्ञात द्वारा भर जाओगे, लेकिन वह बिना किसी आकार का है। वहां नृत्य करते हुए कृष्ण न होंगे; सूली पर चढ़े हुए जीसस न होंगे और न सिद्धासन में बैठे हुए बुद्ध होंगे वहां। नहीं, वहां तो केवल एक उपस्थिति होगी। एक जीवंत उपस्थिति तुममें लहराती हुईभीतर और बाहर। तुम उससे अभिभूत हो जाओगे, तुम उसकी अथाह जलराशि में उतर जाओगे।


जीसस तुममें नहीं होंगे, तुम जीसस में होओगेयह होगा अंतर। कृष्ण प्रतिमा की तरह तुम्हारे मन में न होंगे, तुम कृष्ण में होओगे। लेकिन कृष्ण निराकार होंगे। वह एक अनुभव होगा, कल्पनात्‍मक धारणा नहीं। 


तब उसे कृष्ण क्यों कहा जाये? वहां कोई आकृति नहीं होगी। उन्हें जीसस क्यों कहा जाये? ये तो केवल प्रतीक हैं; भाषाविज्ञान के प्रतीक हैं। तुम इस शब्द 'जीसस' के साथ घुलमिल गये हो, इसलिए जब वह उपस्थिति तुममें भर जाती है और तुम उसका एक हिस्सा बन जाते होउसका एक आंदोलित हिस्सा, जब तुम उस महासागर की एक बूंद बन जाते हो, तो इसे व्यक्त कैसे करो? शायद तुम्हारे लिए सबसे सुंदर शब्द हो. 'जीसस', या सबसे सुंदर शब्द होगा 'बुद्ध' या 'कृष्ण', ये शब्द मन में पलते रहे हैं इसलिए तुम कुछ निश्चित शब्द चुन लेते हो उस उपस्थिति को बताने के लिए।


लेकिन वह उपस्थिति मात्र छाया नहीं है, वह स्‍वप्‍न नहीं है। वह कोई मनोछबि नहीं है। तुम जीसस का उपयोग कर सकते हो, तुम कृष्ण का उपयोग कर सकते हो, तुम क्राइस्ट का उपयोग कर सकते हो या जो भी कोई नाम तुम्हें अच्छा लगे। जो भी नाम प्रीतिकर हो। यह तुम पर है। वह शब्द और वह नाम और वह रूप तुम्हारे मन से आयेगा, लेकिन वह अनुभव स्वयं अरूप है। वह कल्पना नहीं है।

पतंजलि योग सूत्र 

ओशो