Monday, October 21, 2019

आपने कहा कि यदि हम राम की झलकियां देख पाते है या कल्पना करते हैं कि हम कृष्‍ण के साथ नृत्य कर रहे हैं तो ध्यान रखें कि यह केवल कल्पना हो लेकिन अभी पिछली एक रात आपने कहा कि यदि हम ग्रहणशील हैं तो हम बिलकुल अभी बुद्ध या जीसस या कृष्ण से संपर्क बना सकते हैं। तो क्या यह मिलन भी कल्पना है, या ऐसी ध्यानमग्न अवस्थाएं हैं जिनमें क्राइस्ट या बुद्ध वास्तव में वहां होते हैं?


पहली बात: सौ में से, निन्यानबे घटनाएं तो कल्पना द्वारा होंगी। तुम कल्पना कर लेते हो इसीलिए कृष्ण ईसाई को कभी दिखाई नहीं पड़ते और मोहम्मद कभी हिंदू को नहीं दिखाई पड़ते। हम मोहम्मद और जीसस को भूल सकते हैं, वे बहुत दूर है। जैन के सामने राम के दर्शन की झलकियां कभी प्रकट नहीं होतीं, वे नहीं दिख सकते। हिंदू के सामने महावीर कभी प्रकट नहीं होते। क्यों? क्योंकि महावीर की तुम्हारे पास कोई कल्पना नहीं।

यदि तुम जन्म से हिंदू हो, तो तुम राम और कृष्ण की अवधारणा पर पले हो। यदि तुम जन्म से ईसाई हो, तब तुम पले होतुम्हारा कम्प्यूटर, तुम्हारा मन पला है जीसस की धारणा, जीसस की प्रतिमा के साथ। जब कभी तुम ध्यान करना शुरू करते हो, वह पोषित प्रतिमा मन में चली आती है, वह मन में प्रक्षेपित हो जाती है।

जीसस ईसाई व्यक्ति को दिखते हैं, लेकिन यहूदियों को कभी दिखाई नहीं देते जीसस। और वे यहूदी थे। जीसस यहूदी की तरह जन्मे और यहूदी की तरह मरे। लेकिन वे यहूदियों को दिखाई नहीं देते, क्योंकि उन्होंने उनमें कभी विश्वास नहीं किया। वे लोग सोचते थे जीसस मात्र एक आवारा है। उन्हें एक अपराधी की तरह सूली पर चढ़ा दिया उन्होंने। इसलिए जीसस यहूदियों को कभी नहीं जँचे। लेकिन वे यहूदियों के संबंधी थे। उनकी धमनियों में यहूदी खून था।

लेकिन जीसस यहूदियों के सामने कभी प्रकट नहीं होते और वे ईसाई न थे। वे किसी ईसाई चर्च से संबंधित न रहे थे। यदि वे वापस आ जायें, वे ईसाई चर्च को पहचानेंगे भी नहीं। वे सिनागोग की ओर बढ़ जायेंगे। वे यहूदी संप्रदाय में जा पहुंचेंगे। वे किसी रबाई से मिलने चले जायेंगे। वे कैथोलिक या प्रोटेस्टेंट पादरी से मिलने नहीं जा सकते। वे उन्हें नहीं जानते। लेकिन यहूदियों को वे कभी दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि उनकी कल्पनाओं में वे कभी बीज की तरह पड़े नहीं। उन्हें अस्वीकृत कर दिया था उन्होंने, तो बीज वहां नहीं है।

इसलिए जो कुछ घटित होता है, निन्यानबे संभावनाएं ऐसी हैं कि वह केवल तुम्हारा पोषित ज्ञान, धारणाएं और प्रतिमाएं होती होंगी। वे तुम्हारे मन के सामने झलक जाती हैं। और जब तुम ध्यान करने लगते हो, तो तुम इतने संवेदनशील हो जाते हो कि तुम स्वयं अपनी कल्पनाओं के शिकार हो सकते हो। और तुम्हारी कल्पनाएं बहुत वास्तविक लगेंगी। और इसे जांचने का कोई रास्ता नहीं है कि वे वास्तविक होती हैं या अवास्तविक।


केवल एक प्रतिशत मामलों में यह काल्पनिक न होगा, लेकिन पता कैसे चले? उन एक प्रतिशत मामलों में वास्तव में वहां किसी धारणा की कोई छबि होगी ही नहीं। तुम यह अनुभव नहीं करोगे कि जीसस सूली पर चढ़े हुए तुम्हारे सामने खड़े हैं; तुम नहीं अनुभव करोगे कि कृष्ण तुम्हारे सामने खड़े हैं या तुम उनके सामने नाच रहे हो। तुम उनकी उपस्थिति को अनुभव करोगे, लेकिन कोई प्रतिमा न होगी, इसे ध्यान में रखना। तुम एक दिव्य उपस्थिति का अवतरण अनुभव करोगे। तुम किसी अज्ञात द्वारा भर जाओगे, लेकिन वह बिना किसी आकार का है। वहां नृत्य करते हुए कृष्ण न होंगे; सूली पर चढ़े हुए जीसस न होंगे और न सिद्धासन में बैठे हुए बुद्ध होंगे वहां। नहीं, वहां तो केवल एक उपस्थिति होगी। एक जीवंत उपस्थिति तुममें लहराती हुईभीतर और बाहर। तुम उससे अभिभूत हो जाओगे, तुम उसकी अथाह जलराशि में उतर जाओगे।


जीसस तुममें नहीं होंगे, तुम जीसस में होओगेयह होगा अंतर। कृष्ण प्रतिमा की तरह तुम्हारे मन में न होंगे, तुम कृष्ण में होओगे। लेकिन कृष्ण निराकार होंगे। वह एक अनुभव होगा, कल्पनात्‍मक धारणा नहीं। 


तब उसे कृष्ण क्यों कहा जाये? वहां कोई आकृति नहीं होगी। उन्हें जीसस क्यों कहा जाये? ये तो केवल प्रतीक हैं; भाषाविज्ञान के प्रतीक हैं। तुम इस शब्द 'जीसस' के साथ घुलमिल गये हो, इसलिए जब वह उपस्थिति तुममें भर जाती है और तुम उसका एक हिस्सा बन जाते होउसका एक आंदोलित हिस्सा, जब तुम उस महासागर की एक बूंद बन जाते हो, तो इसे व्यक्त कैसे करो? शायद तुम्हारे लिए सबसे सुंदर शब्द हो. 'जीसस', या सबसे सुंदर शब्द होगा 'बुद्ध' या 'कृष्ण', ये शब्द मन में पलते रहे हैं इसलिए तुम कुछ निश्चित शब्द चुन लेते हो उस उपस्थिति को बताने के लिए।


लेकिन वह उपस्थिति मात्र छाया नहीं है, वह स्‍वप्‍न नहीं है। वह कोई मनोछबि नहीं है। तुम जीसस का उपयोग कर सकते हो, तुम कृष्ण का उपयोग कर सकते हो, तुम क्राइस्ट का उपयोग कर सकते हो या जो भी कोई नाम तुम्हें अच्छा लगे। जो भी नाम प्रीतिकर हो। यह तुम पर है। वह शब्द और वह नाम और वह रूप तुम्हारे मन से आयेगा, लेकिन वह अनुभव स्वयं अरूप है। वह कल्पना नहीं है।

पतंजलि योग सूत्र 

ओशो

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