Thursday, October 3, 2019

साधना की गति बेबूझ मालूम होती है। किसी क्षण में सब दौड़ व्यर्थ लगती है, साथ ही एक अपूर्व हल्कापन भी अनुभव होता है। लेकिन किसी अन्य क्षण में, उसी तीव्रता के साथ एहसास होता है कि मंजिल तो दूर अभी यात्रा भी शुरू नहीं हुई। क्या साधना ऐसे ही चलती है?




सत्य निकट भी है, निकट से भी निकटतम। और दूर भी है, दूर से भी दूरतम। पास है, क्योंकि तुम्हारा स्वभाव है। दूर है, क्योंकि पूरे अस्तित्व का स्वभाव है। बूंद सागर भी है, नहीं भी है। बूंद सागर है, क्योंकि जो बूंद में वही विस्तीर्ण हो कर सागर में। बूंद सागर नहीं भी है, क्योंकि बूंद की सीमा है, सागर की क्या सीमा


साधना एक न एक दिन ऐसी जगह ले आती है, जहां लगता है सब मिल गया, और जहां साथ ही लगता है कुछ भी नहीं मिला। अपनी तरफ देखोगे, लगेगा सब पा लिया। सत्य की तरफ देखोगे, लगेगा अभी तो यात्रा शुरू भी नहीं हुई। और यह प्रतीति शुभ है। द्योतक है एक बहुत कीमती बिंदु पर पहुंच जाने की। जिन्हें लगे सब पा लिया, और दूसरी बात एहसास न हो कि कुछ भी नहीं पाया, उनका पाना अहंकार की ही पुष्टि है। जिन्हें लगे कुछ भी नहीं पाया, और साथ ही ऐसा न लगे कि सब कुछ पा लिया, उनकी यह प्रतीति अहंकार की विफलता ही है। अहंकार सफल होता है तो कहता है, सब पा लिया विफल होता है तो कहता है, सब खो दिया। लेकिन अहंकार की भाषा या तो पाने की होती है, या खोने की होती है। दो में से एक को चुनना है अहंकार। निरअहंकार के क्षण में, जहां तुम शून्यवत हो, पाना और खोना समान अर्थी हो जाते हैं। वही जीवन की सबसे बड़ी पहेली का अनुभव होता है।


ऐसी प्रतीति जब आए तो भयभीत मत होना। सौभाग्य का क्षण मानता। नाचना, अहोभाव से भरना। यात्रा शुरू भी नहीं हुई, ऐसा भी लगेगा। सुंदर है ऐसा लगना। क्योंकि परमात्मा की यात्रा शुरू कैसे हो सकती है? जिसकी भी शुरुआत है उसका तो अंत आ जाता है। परमात्मा की यात्रा की शुरुआत का तो अर्थ होगा कि तुम उसका अंत करने को उत्सुक हो। उसकी तो शुरुआत का अर्थ होगा कि तुमने उसकी सीमा बना दी। एक छोर मिल गया, दूसरा कभी मिल जाएगा। देर-अबेर की बात होगी। लेकिन परमात्मा को भी तुम माप डालोगे।


अगर ऐसा लगे कि पा ही लिया, तो तुमने कुछ पा लिया होगा जो परमात्मा नहीं हो सकता। जो तुम्हारी मुट्ठी में समा जाए, वो आकाश नहीं। जो तुम्हारी मुट्ठी में बंद हो जाए, तुम्हारे शब्द, तुम्हारे मन की सीमा में आ जाए, जो तुम्हारा अनुभव बन जाए, वो परमात्मा नहीं। वो तुम्हारी मन की ही कोई कल्पना और धारणा होगी। होंगे तुम्हारे मन की कल्पना के कृष्ण, क्राइस्ट, बुद्ध, महावीर। होंगे तुम्हारे सिद्धांतों की, आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म की तत्वचर्चा, लेकिन वास्तविक परमात्मा नहीं। वास्तविक परमात्मा तो सदा मिला हुआ है। और कभी भी ऐसा नहीं होता कि प्रतीत हो कि पूरा मिल गया। उसका स्वाद तो मिलता है, क्षुधा कभी मिटता नहीं। और जैसे-जैसे क्षुधा भारती है वैसे-वैसे बढ़ती है। जैसे कोई आग में घी डालता चला जाए। प्यास बुझती भी लगती है एक तरफ से, दूसरी तरफ से बढ़ती भी लगती है। इसीलिए तो परमात्मा का प्रेमी बड़ा पागल मालूम होता है। एक तरफ कहता है वो मिला ही हुआ है, और दूसरी तरफ कितना श्रम करता है उसे पाने का। सांसारिक व्यक्ति को लगता है कि यह बात तो अतक्र्य है। अगर मिला हुआ है, तो पाने की बातचीत बंद करो। और अगर मिली ही नहीं है, तो मिल न सकेगा। क्योंकि जो स्वभाव में नहीं है, उसे तुम कैसे पा सकोगे


धार्मिक व्यक्ति सदा ही संसारियों को बावला मालूम पड़ा है। उसको पाने चलता है जिसको कहता है मिला है। उसको पाने चलता है जिसको कभी पूरा पाने का उपाय नहीं है। उस यात्रा पर निकलता है जो शुरू तो होती लगती है, लेकिन अंत कभी नहीं होती। ऐसा क्षण जब तुम्हें प्रतीत होने लगे और तुम्हारे चारों तरफ ऐसी भनक आने लगे, तब तुम दोनों बातों के साथ एक साथ राजी हो जाना। चुनना मत। तुम कहना कि तू मिला भी हुआ है, और तुझे खोजना भी है। 


अमरीका के बहुत बड़े विचारक अल्फ्रेड व्हाइटहेड ने कुछ बड़े महत्वपूर्ण वचन लिखे हैं। उनमें से कुछ वचन में तुम्हें कहूं। पहा वचन: कि धर्म ऐसी खोज है जो कभी पूरी नहीं होती। शुरू होती लगती है, पूरी होती नहीं लगती। धर्म एक ऐसी आशा है जो ध्रुवतारे की तरह आकाश में दूर टंगी रहती है। बुलाती है, लेकिन कभी हम उसके पास नहीं पहुंच पाते। धर्म समझ में आता मालूम पड़ता है, लेकिन जिनकी भी समझ में आ जाता है उन्हें ही लगता है कि समझना असंभव है। रहस्यमय! यही धर्म के रहस्य होने का अर्थ है। तुम उसे सुलझाने चलोगे, तुम सुलझ जाओगे उसे न सुलझा पाओगे। तुम हल्के हो जाओगे। तुम बिलकुल निर्भार हो जाओगे। तुम परम आनंद में मगन हो नाच उठोगे लेकिन, रहस्य रहस्य ही बना रहेगा। 


और अगर तुम परेशान न हो तो मुझे कहने दो कि जब तुमने यात्रा शुरू की थी रहस्य जितना था, उससे ज्यादा रहस्य उस दिन होगा जिस दिन तुम मिट जाओगे और खोजने वाला कोई न बचेगा; उस दिन रहस्य परिपूर्ण होकर प्रकट होगा। उस दिन रहस्य सब तरफ से बरस उठेगा। विज्ञान तो रहस्य को नष्ट करता है। जिस बात को हम जान लेते हैं--जान लिया, उसकी जिज्ञासा समाप्त हो गयी। धर्म, जिस बात को हम जान लेते हैं उसमें नये द्वार खोल देता है। जानने को एक द्वार सुलझा पाते हैं, दस नये द्वार खड़े हो जाते हैं। धर्म का वृक्ष उसकी शाखाएं-प्रशाखाएं फैलती ही चली जाती हैं--अनंत तक। मनुष्य प्रवेश तो करता है धर्म की पहली में, बाहर लौटकर कभी नहीं आ पाता। 


यह शुभ हो रहा है। ऐसी प्रतीति हो, उसे भी परमात्मा का प्रसाद मानना। और साधना ऐसे ही चलती है।

बिन घन परत फुहार 

ओशो 

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