Tuesday, October 8, 2019

"जहां न दुख है न सुख, न पीड़ा न बाधा, न मरण न जन्म, वहीं निर्वाण है।'


आदमी दो नावों पर साथ-साथ सवार हो और दोनों नावें विपरीत दिशाओं में जाती हों, ऐसा है संसार। जैसे आदमी दो दरवाजों से एक साथ प्रवेश करने की कोशिश कर रहा हो और दोनों दरवाजे इतने दूर हों जैसे जमीन और आकाश, ऐसा है संसार। जैसे कोई एक ही साथ जन्मना भी चाहता हो और मरने से भी बचना चाहता हो, दो विपरीत आकांक्षाएं कर रहा हो और दोनों के बीच उलझ रहा हो, परेशान हो रहा हो, ऐसा है संसार।

हमारी सभी आकांक्षाएं विपरीत हैं। इसे थोड़ा समझना। इसकी समझ तुम्हारे भीतर एक दीये को जन्म दे देगी। एक तरफ तुम चाहते हो, दूसरे लोग मुझे सम्मान दें और दूसरी तरफ तुम चाहते हो, कोई अपमान न करे। साधारणतः दिखाई पड़ता है इन दोनों में विरोध कहां?

इन दोनों में विरोध है। यह तुम दो नौकाओं पर सवार हो गए।

इसका विश्लेषण करो: तुम चाहते हो, दूसरे मुझे सम्मान दें। ऐसा चाहकर तुमने दूसरों को अपने ऊपर बल दे दिया। दूसरे शक्तिशाली हो गए, तुम कमजोर हो गए। अपमान तो शुरू हो गया। अपमान तो तुमने अपना कर ही लिया। दूसरे जब करेंगे तब करेंगे। तुम अपमानित तो होना शुरू ही हो गए। यह कोई सम्मान का ढंग हुआ? जहां दूसरे हमसे बलशाली हो गए।

दूसरों से सम्मान चाहा इसका अर्थ है कि दूसरों के हाथ में तुमने शक्ति दे दी कि वे अपमान भी कर सकते हैं। और निश्चित ही अपमान करने में उन्हें ज्यादा रस आएगा। क्योंकि तुम्हारे अपमान के द्वारा ही वे सम्मानित हो सकते हैं। वे भी तो सम्मान चाहते हैं, जैसा तुम चाहते हो। तुम किसका सम्मान करते हो? तुम सम्मान मांगते हो। वे भी सम्मान मांग रहे हैं। वे तुम्हारा सम्मान करें तो उन्हें कौन सम्मान देगा?

प्रतिस्पर्धा है। एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हो तुम। तुम जब दूसरे से सम्मान मांगते हो तब तुमने उसे क्षमता दे दी, हाथ में कुंजी दे दी कि वह तुम्हारा अपमान कर सकता है। अब सौ में निन्यानबे मौके तो वह ऐसे खोजेगा कि तुम्हारा अपमान कर दे। कभी मजबूरी में न कर पाएगा तो सम्मान करेगा। सम्मान तो लोग मजबूरी में करते हैं। अपमान नैसर्गिक मालूम पड़ता है। सम्मान बड़ी मजबूरी मालूम पड़ती है। झुकता तो आदमी मजबूरी में है। अकड़ना स्वाभाविक मालूम पड़ता है।

तो जैसे ही तुमने सम्मान मांगा, अपमान की क्षमता दे दी। और दूसरा भी सम्मान की चेष्टा में संलग्न है। वह भी चाहता है, अपनी लकीर तुमसे बड़ी खींच दे। जैसा तुम चाहते हो वैसा वह चाहता है।

अब अड़चन शुरू हुई। सम्मान देगा तो भी तुम सम्मानित न हो पाओगे क्योंकि सम्मान देनेवाला तुमसे बलशाली है और अपमान करेगा तो तुम पीड़ित जरूर हो जाओगे।

तुमने धन मांगा, तुमने अपनी निर्धनता की घोषणा कर दी। क्योंकि निर्धन ही धन मांगता है। जो हमारे पास नहीं है वही हम मांगते हैं।

मैंने सुना है, शेख फरीद से एक धनपति ने कहा, यह बड़ी अजीब बात है। मैं तुम्हारे पास आता हूं तो सदा ज्ञान की, आत्मा की, परमात्मा की बात करता हूं। तुम जब कभी आते हो तो तुम सदा धन मांगते आते हो। तो सांसारिक कौन है?

शेख फरीद ने कहा, मैं गरीब हूं इसलिए धन मांगता हूं। तुम अज्ञानी हो इसलिए ज्ञान मांगते हो। जो जिसके पास नहीं है वही मांगता है। मैं तो तुम्हारी याद ही तब करता हूं जब गांव में कोई तकलीफ होती है, मदरसा खोलना होता है, अकाल पड़ जाता है, कोई बीमार मर रहा होता उसको दवा की जरूरत होती है तो मैं आता हूं। मैं दीन हूं, दरिद्र हूं। यह मेरा गांव गरीब और दरिद्र है। स्वभावतः मैं कोई ब्रह्म और परमात्मा की बात करने तुम्हारे पास नहीं आता। वह तो हमारे पास है।

तुम जब मेरे पास आते हो तो तुम धन की बात नहीं करते क्योंकि धन तुम्हारे पास है। तुम ब्रह्म की बात करते आते हो, जो तुम्हारे पास नहीं है।

इसे थोड़ा सोचना। जिससे तुमने धन मांगा, तुमने घोषणा कर दी कि तुम निर्धन हो। धन मांगनेवाला निर्धन है। पद मांगा, घोषणा कर दी कि तुम हीन हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं पद के आकांक्षी हीनग्रंथि से पीड़ित होते हैं--इनफीरियारिटी काम्पलेक्स। सभी राजनीतिज्ञ हीनग्रंथि से पीड़ित होते हैं। होंगे ही; कोई दूसरा और उपाय नहीं है। जब तुम सिद्ध करना चाहते हो कि मैं शक्तिशाली हूं तो तुमने अपने भीतर मान रखा है कि तुम शक्तिहीन हो। अब किसी तरह सिद्ध करके दिखा देना है कि नहीं, यह बात गलत है।

कमजोर बहादुरी सिद्ध करना चाहता है। कायर अपने को वीर सिद्ध करना चाहता है। अज्ञानी अपने को ज्ञानी सिद्ध करना चाहता है। हम जो नहीं हैं उसकी ही चेष्टा में संलग्न होते हैं। और जो हम नहीं हैं, हमारी चेष्टा से प्रगट होकर दिखाई पड़ने लगता है। पीड़ा और बढ़ती चली जाती है।

जन्म तो हम मांगते हैं, जीवन तो हम मांगते हैं, मौत से हम डरते हैं। हम चिल्लाते हैं, मौत नहीं। और सब हो, मृत्यु नहीं। मृत्यु की हम बात भी नहीं करना चाहते। लेकिन जन्म के साथ हमने मृत्यु मांग ली। क्योंकि जो शुरू होगा वह अंत होगा।

मृत्यु जन्म के विपरीत नहीं है, जन्म की नैसर्गिक परिणति है। जो शुरू होगा वह अंत होगा। जो बनेगा वह मिटेगा। जिसका सृजन किया जाएगा उसका विध्वंस होगा। तुमने एक मकान बनाया, उसी दिन तुमने एक खंडहर बनाने की तैयारी शुरू कर दी। खंडहर बनेगा। तुम जब भवन बना रहे हो तब तुम एक खंडहर बना रहे हो। क्योंकि बनाने में ही गिरने की शुरुआत हो गई। तुमने एक बच्चे को जन्म दिया, तुमने एक मौत को जन्म दिया। तुम जन्म के साथ मौत को दुनिया में ले आए।
जिसे हम संसार कहते हैं वह विरोधाभास है, और विरोधाभास से जो पार हो गया वही निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है।

तो महावीर का पहला सूत्र हुआ: विरोध के पार है निर्वाण।

"जहां न दुख है न सुख, न पीड़ा न बाधा, न मरण न जन्म, वहीं निर्वाण है।'

जहां विरोध नहीं, द्वंद्व नहीं; जहां दो नहीं, दुई नहीं; जहां द्वैत नहीं, जहां अद्वैत है, वहीं है निर्वाण। जहां एक ही बचता है, आत्यांतिक रूप से एक बचता है, वहीं है निर्वाण। जब तक तुम्हारे भीतर विरोध है, जब तक तुम दो की आकंाक्षा करते, जब तक तुम्हारी आकांक्षाओं में संघर्ष और द्वंद्व है तब तक तुम कैसे शांत हो सकोगे? तब तक कैसा सुख? कैसी शांति? कैसा चैन? तब तक कभी विराम नहीं हो सकता।

तुम्हारी मांग में ही भूल हुई जा रही है। नहीं, कि तुम जो मांगते हो वह नहीं मिलता है, इसलिए तुम दुखी हो। तुमने मांगा, उसी में तुमने दुख मांग लिया। अक्सर लोग संसार से ऊबते भी हैं तो उनके ऊबने का कारण गलत होता है।

जिन सूत्र 

ओशो 

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