Saturday, November 16, 2019

भगवान, मैं मृत्यु की तो बात और, मृत्यु शब्द से भी डरती हूं। मृत्यु से कैसे छुटकारा हो सकता है?




कुसुम रानी! मृत्यु से तो छुटकारा नहीं हो सकता। मरना तो पड़ेगा! मृत्यु तो जन्म के ही सिक्के का दूसरा पहलू है। जब जन्म ले लिया, जब सिक्के का एक पहलू ले लिया, तो अब दूसरे पहलू से कैसे बचा जा सकता है? मृत्यु तो जन्म में ही घट गई। सत्तर साल तो तुम्हें पता लगाने में लगेंगे, बस, घट तो चुकी ही है।

जिस दिन बच्चा पैदा होता है, उसी दिन रो लेना; मृत्यु तो आ गई। अब जीवन में और कुछ हो या न हो, एक बात पक्की है: मृत्यु होगी। अदभुत है जीवन! इसमें मृत्यु के सिवाय और कुछ भी सुनिश्चित नहीं है। सब अनिश्चित है; हो या न हो; हो भी सकता है, न भी हो; मगर मृत्यु तो होगी ही। कितने ही भागो और कितने ही बचो, मृत्यु से न कोई बच सकता है और न कोई भाग सकता है।

और जितने डरोगे, उतने ही मरोगे।

मृत्यु तो एक बार आती है, मगर डरने वाले को रोज प्रतिपल खड़ी है, गला दबोचे। डरने वाला तो जी नहीं पाता, सिर्फ मरता ही मरता है। कहते हैं, वीर की मृत्यु तो एक बार होती है, कायर की हजार बार। ठीक कहते हैं। कहावत अर्थपूर्ण है।


तू कहती है, मैं मृत्यु की तो बात और, मृत्यु शब्द से भी डरती हूं। तेरा ही ऐसा नहीं है मामला, अधिक लोगों का मामला ऐसा है। मृत्यु शब्द से ही लोग डरते हैं। इसलिए मृत्यु शब्द को बचाकर बात करते हैं। कोई मर जाता है तो भी हम सीधासीधा नहीं कहते। कहते हैं: स्वर्गीय हो गए। ऐसा नहीं कहते कि मर गए। सभी स्वर्गीय हो जाते हैं। तो फिर नरक कौन जाता है? जिनको तुम भलीभांति जानते हो कि वे नारकीय ही हो सकते हैंशायद नर्क में भी जगह मिले कि न मिले; शायद नर्क के भी योग्य न समझे जाएंउनको भी तुम कहते हो: स्वर्गीय हो गए। स्वर्गीय मीठा शब्द है। मृत्यु के ऊपर शक्कर पोत दी। जहर की गोली को मीठा कर लिया।

अदभुतअदभुत शब्द लोगों ने खोज निकाले हैं। परम यात्रा पर चले गए। मर गए हैं, मगर लोग कहते हैं: परम यात्रा पर चले गए। मर गए हैं, लोग कहते हैं: प्रभु के प्यारे हो गए। प्रभु का कभी उन्होंने नाम न लिया, प्रभु को उन्होंने कभी प्रेम न किया, और अब मर गए हैं तो प्रभु के प्यारे हो गए! ये तरकीबें हैं मृत्यु शब्द से बचने की, कि कहीं उस शब्द का उपयोग न करना पड़े। उस शब्द को हम बचाते हैं। जैसे ही कोई मर जाता है, लोग आत्मा की अमरता की बातें करने लगते हैं। कि आत्मा अमर है। अरे, कहीं कोई मरता है! शरीर तो बस वस्त्र की भांति है। पुराने वस्त्र जीर्णशीर्ण हो जाते हैं, गिर जाते हैं, नए वस्त्र मिल जाते हैं। और जो ये बातें कर रहे हैं, उनकी छाती धड़क रही है; वे घबड़ा गए हैं। क्योंकि हर किसी की मौत तुम्हारी मौत की खबर लाती है। किसी की भी मौत हो, तुम्हारी मौत की खबर मिलती है।

हम अच्छेअच्छे शब्द बनाकर जो मर गया उसको धोखा नहीं दे रहे हैंवह तो मर ही गयाहम अपने को धोखा दे रहे हैं। हम अपने को समझा रहे हैं कि मृत्यु नहीं होती।

पश्चिम में तो इसके लिए पूरा धंधा चल पड़ा है। जब कोई मर जाता है, तो जितनी उसकी हैसियत हो, उसके घरवालों की हैसियत हो, उतना खर्च किया जाता है उसके मरने के बाद। उसके शरीर को सजाया जाता है। अगर स्त्री हो तो लिपिस्टिक, बाल, सुंदरसुंदर कपड़े, बड़ा सुंदर ताबूत, बहुमूल्य ताबूत। कहते हैं, पश्चिम में कला इतनी विकसित हो गई है मुर्दों को सजाने की, उसके विशेषज्ञ हैं, जो हजारों रुपया फीस पाते हैं। लाश को सजाने की! फिर लाश सज गई, फूल चढ़ गए, फिर लोग देखने आते हैं। अंतिम बिदाई दे रहे हैं। तो उनके लिए धोखा दिया जा रहा है। मुर्दे के गाल पर लाली पोत दी गई है, लिपिस्टिक लगा दिया गया है, बाल ढंग से सजा दिए गए हैंनहीं थे तो नकली बाल लगा दिए हैं, सुंदर कपड़े पहना दिए गए हैं, फूलमालाएं, ऐसा लगता है जैसे व्यक्ति मरा ही नहीं, जिंदा है। जैसे किसी बड़ी महायात्रा पर जा रहा है, महाप्रस्थान के पथ पर।

ऐसी मैंने एक घटना सुनी है। एक आदमी मरा। उसको खूब सजायाबजाया गया। बड़ा आदमी था, धनपति था। लोग देखने आए, अंतिम विदा होने आए। एक दंपति आया। पत्नी ने कहा, देखते हो? कितना सुंदर मालूम हो रहा है यह व्यक्ति! कितना शालीन, कितना शांत! कितना प्रसादपूर्ण! पति ने कहा, हो भी क्यों नहीं, अभीअभी छह महीने स्विटजरलैंड होकर आया है!

छह महीने स्विटजरलैंड टी. वी. की चिकित्सा कराने गया था बेचारा! वहीं मर गया। वहां से लाश लाई गई। पति ने कहा, हो भी क्यों नहीं, अभीअभी छह महीने स्विटजरलैंड का मजा लेकर लौट रहा है। स्विटजरलैंड की हवा और स्विटजरलैंड की ताजगी और स्विटजरलैंड के पहाड़ और मौसम, हो भी क्यों न!

मुर्दे को हम इस तरह छिपा सकते हैं कि जिंदा आदमी कोर् ईष्या होने लगे। यह पति इस तरह बोल रहा है जैसे गहरीर् ईष्या से भर गया हो।

लेकिन मृत्यु में डरने योग्य है क्या? मृत्यु तुमसे छीन क्या लेगी? तुम्हारे पास है क्या जो छिन जाएगा? कुसुम रानी, कभी शांति से बैठकर आंख बंद करके यह सोचना कि मृत्यु आएगी तो तुम्हारा छिन क्या जाएगा? तुम्हारे पास है भी क्या? सांस नहीं चलेगी। तो चलने से भी क्या हो रहा है? भीतर गई, बाहर आई, नहीं आएगी, नहीं जाएगी, तो क्या हो रहा है? आनेजाने ही से क्या हुआ था? ये धुक—धुक—धुक—धुक जो हृदय चल रहा है, यह नहीं चलेगा। तो चलने ही से कौनसी बड़ी महिमा हो रही है? अभी चलने से तुम्हें कौनसा मजा आ रहा है? कौनसा आनंद बरस रहा है? इस जीवन में तुम्हारे है क्या जो तुम खोने से डरते हो? यह प्रश्न सोचने जैसा है और इसलिए सोचने जैसा है क्योंकि तुम डरते ही इसलिए हो कि तुम्हारे जीवन में कुछ नहीं है।

तुम्हें बड़ी बात बेबूझ लगेगी। विरोधाभासी लगेगी। लेकिन ठीक से समझने की कोशिश करना।

तुम्हारे जीवन में कुछ नहीं है, इसलिए मृत्यु का डर लगता है। क्यों? क्योंकि अभी कुछ भी तो नहीं मिला और मौत कहीं आकर बीच में ही समाप्त न कर दे! अभी हाथ तो खाली के खाली हैं। अभी प्राण तो रिक्त के रिक्त हैं। और कहीं ऐसा न हो कि परदा बीच में ही गिर जाए! अभी नाटक पूर्णाहुति पर नहीं पहुंचा। अभी कुछ भी तो जाना नहीं, कुछ भी तो जीया नहीं। अभी ऐसी कोई भी तो तृप्ती नहीं है। कोई तो ऐसा संतोष नहीं मिला कि कह सकें कि जिंदा थे। जीवन की अभी कोई सौगात नहीं मिली। और मौत कहीं आकर एकदम से पटाक्षेप न कर दे! नहीं तो खाली रहे और खाली गए।

मैं यह कहना चाहता हूं कि मौत से कोई नहीं डरता, तुम्हारी जिंदगी खाली है, इसलिए मौत का डर लगता है। भरे हुए आदमी को मौत का डर नहीं लगता। बुद्ध मृत्यु से नहीं डरते। जीसस मृत्यु से नहीं डरते। मुहम्मद मृत्यु से नहीं डरते। मृत्यु का सवाल ही नहीं है। जीवन इतना भरापूरा है, इतना अहोभाव से भरा है, इतनी धन्यता से, इतना भरपूर है कि अब मौत आए तो आ जाए! कल आती हो तो आज आ जाए! आज आती हो तो अभी आ जाए! इतनी परितुष्टि है कि जो पाने योग्य था पा लिया गया, अब मौत क्या बिगाड़ेगी? जो जानने योग्य था जान लिया गया, अब मौत क्या छीन लेगी?

और जानने योग्य क्या है? स्वयं की सत्ता जानने योग्य है। स्वयं की चैतन्य अवस्था पहचानने योग्य है। आत्मा का धन पाने योग्य है। क्योंकि उसी धन को पाकर परमात्मा मिलता है। जिसने अपने को पहचाना, उसने परमात्मा को पहचाना।

कुसुम रानी, मृत्यु के साथ नाहक भय के संबंध न जोड़ो। जीवन से प्रेम के संबंध जोड़ो, मृत्यु के साथ भय के संबंध मत जोड़ो। जीवन को जीओ उसकी अखंडता में, उसकी समग्रता में और उसी जीने में, उसी जीने के उल्लास में मृत्यु तिरोहित हो जाती है। शरीर तो मरेगा ही मरेगा, शरीर तो मरा ही हुआ है; जो मरा ही हुआ है, वह मरेगा। लेकिन तुम्हारे भीतर जो चैतन्य है, वह तो कभी जन्मा नहीं, इसलिए मरेगा भी नहीं। उससे पहचान करो। यह मत पूछो कि मृत्यु से कैसे छुटकारा हो सकता है? तुम्हारे भीतर जो असली तत्व है, वह तो मृत्यु के पार है ही, छुटकारे की जरूरत नहीं है। और जो मृत्यु के घेरे में है, तुम्हारी देह, उसका छुटकारा हो सकता नहीं।

सपना यह संसार 

ओशो 

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