Tuesday, November 26, 2019

काम ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन कैसे हो?

काम-ऊर्जा जैसी कोई चीज नहीं होती है। ऊर्जा एक है और एक समान है। काम इसका एक निकास द्वार, इसके लिए एक दिशा, इस ऊर्जा के उपयोगों में से एक है। जीवन-ऊर्जा एक है; किंतु यह बहुत सी दिशाओं में प्रकट हो सकती है। काम उनमें से एक है। जब जीवन-ऊर्जा जैविक हो जाती है तो यह काम-ऊर्जा होती है।

काम जीवन-ऊर्जा का मात्र एक उपयोग है। इसलिए ऊर्ध्वगमन का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यदि जीवन ऊर्जा किसी अन्य दिशा में प्रवाहित होती है, वहां काम नहीं होता। किंतु यह ऊर्ध्वगमन नहीं है; यह रूपांतरण है।

काम जीवन-ऊर्जा का प्राकृतिक जैविक प्रवाह है, और इसका निम्नतम उपयोग भी है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि जीवन का अस्तित्व इसके बिना नहीं हो सकता, और निम्नतम है, क्योंकि यह आधार है, शिखर नहीं। जब काम सभी कुछ हो जाता है, तो सारा जीवन मात्र एक व्यर्थता बन जाता है। यह आधार बनाने और आधार बनाते रहने जैसा है, बिना उस मकान को कभी भी बनाए जिसके लिए आधार रखा गया है।

काम जीवन-ऊर्जा के उच्चतर रूपांतरण के लिए मात्र एक अवसर मात्र है। जब तक यह सामान्यत: ढंग से चलता है, ठीक है, किंतु जब काम सभी कुछ हो जाता है, जब यह जीवन-ऊर्जा का एकमात्र निकास बन जाता है, तब यह विध्वंसात्मक हो जाता है। यह बस साधन हो सकता है, साध्य नहीं। और साधनों का महत्व तभी तक है, जब साध्य प्राप्त कर लिया जाए। जब कोई व्यक्ति साधनों को गाली देता है, सारा प्रयोजन नष्ट हो जाता है। अगर कामवासना जीवन का केंद्र बन जाए, जैसा कि यह बन गया है, तब साधन, साध्यों में बदल जाते हैं। जीवन के अस्तित्व में रहने के लिए, सातत्य के लिए कामवासना जैविक आधार निर्मित करती है। यह एक साधन है, इसे साध्य नहीं बन जाना चाहिए।

जिस पल कामवासना साध्य बन जाती है, आध्यात्मिक आयाम खो जाता है। किंतु अगर काम ध्यानपूर्ण हो जाए, तो यह आध्यात्मिक आयाम की ओर उन्मुख हो जाता है। यह सीढ़ी का पत्थर, छलांग लगाने का तख्ता बन जाता है।


ऊर्ध्वगमन की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि ऊर्जा जैसी वह है, न तो कामुक है और न आध्यात्मिक। ऊर्जा तो सदैव तटस्थ है। अपने आप में यह अनाम है। जिस द्वार से होकर यह प्रवाहित होती है, उसी का नाम इसे मिल जाता है। यह नाम स्वयं ऊर्जा का नाम नहीं है, यह उस रूप का नाम है, जिसे ऊर्जा ग्रहण कर लेती है। जब तुम कहते हो, काम-ऊर्जा, इसका अभिप्राय है वह ऊर्जा जो काम के द्वार से जीव-शास्त्रीय निकास से प्रवाहित होती है। यही ऊर्जा, जब वह भगवत्ता में प्रवाहित होती है, आध्यात्मिक ऊर्जा है।

ऊर्जा अपने आप में तटस्थ है। जब इसकी जीव-शास्त्रीय अभिव्यक्ति होती है, यह कामवासना है। जब इसकी भावनात्मक अभिव्यक्ति होती है, तो यह प्रेम बन सकती है, यह घृणा बन सकती है, यह क्रोध बन सकती है। जब यह बौद्धिक रूप से अभिव्यक्त होती है, यह विज्ञानवादी बन सकती है, यह साहित्यिक बन सकती है। जब यह शरीर के माध्यम से गति करती है, यह भौतिक हो जाती है। जब यह मन के माध्यम से गुजरती है, यह

मानसिक हो जाती है। ये अंतर ऊर्जा के अंतर नहीं हैं, वरन उसके प्रयुक्त रूपों के हैं।

उसलिए काम-ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन' कहना सही नहीं है। अगर काम का निकास द्वार उपयोग में न आए तो ऊर्जा दुबारा शुद्ध हो जाती है। ऊर्जा तो सदा शुद्ध है। जब यह दिव्यता के द्वार के माध्यम से प्रकट होती है, यह आध्यात्मिक बन जाती है, पर धारण किया गया रूप इसकी बस एक अभिव्यक्ति है।

बुद्धत्व का मनोविज्ञान 

ओशो 



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