Wednesday, January 22, 2020

भीड़ का एक मनोविज्ञान है और भीड़ के पीछे चलने की बड़ी सुविधाएं हैं।


इसीलिए तो सारे लोग भीड़ के पीछे चलते हैं। पहली सुविधा तो यह है कि उत्तरदायित्व अपना नहीं रह जाता।


कहा जाता है कि अकेला आदमी इतने भयंकर पाप कभी नहीं कर सकता, जितना भीड़ में सम्मिलित होकर कर सकता है। अकेला मुसलमान मंदिर को जला नहीं सकता; लेकिन मुसलमानों की भीड़ में मंदिर जलाया जा सकता है। अकेला हिंदू मुसलमानों की हत्या नहीं कर सकता है; लेकिन हिंदुओं की भीड़ में व्यक्ति खो जाता है। भीड़ के एक-एक आदमी से पूछो कि जो तुमने किया है, क्या वह ठीक था? अकेले में वह सहमेगा। शायद कहेगा कि भीड़ के साथ मैं कर गुजरा। करना ठीक तो नहीं था।


भीड़ में तुम अपने से कम हो जाते हो। भीड़ में जो सबसे नीचा आदमी है, वह अपने तल पर सभी को खींच लेता है, जैसे पानी एक सतह में हो जाता है। तुम पानी बहाओ तो जो निम्नतम पानी का तल है, वह सारे जल का तल हो जाएगा। क्योंकि कोई पानी का हिस्सा ऊपर नहीं रह सकता।


तो भीड़ में कभी भी महापुरुष पैदा नहीं होता। हो नहीं सकता। क्योंकि भीड़ में जो आखिरी आदमी है, उसके तल पर सभी को आ जाना पड़ता है। महापुरुष सदा एकांत में पैदा होता है। इसलिए महावीर को जंगल जाना पड़ता है। इसलिए बुद्ध को एकांत चुनना पड़ता है। इसलिए मोहम्मद और मूसा को पहाड़ रेगिस्तान में प्रवेश कर जाना होता है। इस दुनिया में जो भी वैभवपूर्ण व्यक्तित्व पैदा हुए हैं ईश्वरीय जिनकी क्षमता है, वे सब एकांत में जन्मे हैं।

भीड़ ने आज तक एक भी महावीर, एक भी बुद्ध, एक भी कृष्ण पैदा नहीं किया। भीड़ क्षुद्र को पैदा करती है।


भीड़ का नियम तुम समझ लो, वह गणित सीधा है। जैसे पानी अपने नीचे से नीचे सतह पर आकर ठहर जाता है, ऐसे ही भीड़ में चेतना निम्नतम आदमी पर आकर ठहर जाती है। जब भी तुम भीड़ में जाते हो, तो थोड़ा सोच कर जाना। भीड़ से लौट कर तुम हमेशा पाओगे कि तुम कुछ खोकर लौटे हो।

 
भीड़ में दायित्व खो जाता है, इसलिए बड़ा सुख हैभीड़ का; क्योंकि तुम नहीं कहते कि तुम जिम्मेवार हो। जीवन की सबसे बड़ी कठिन साधना जिम्मेवारी का अनुभव है। जब तुम्हें लगता हैः मैं रिस्पांसिबल हूं, तब चिंता पैदा होती है। क्योंकि जहां दायित्व है, वहां चिंता है, तनाव है। भीड़ सारा दायित्व अपने ऊपर ले लेती है।

सहज समाधी भली 

ओशो

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