Thursday, January 2, 2020

नानक कहते हैं, इक ओंकार सतनाम।



यह सत शब्द भी समझ लेने जैसा है। संस्कृत में दो शब्द हैं। एक सत और एक सत्य। सत का अर्थ होता है एक्झिस्टेंस, अस्तित्व। और सत्य का अर्थ होता है ट्रुथ। दोनों में बड़ा फर्क है। दोनों की मूल धातु तो एक है। सच, सत्य, सत, सब की मूल धातु एक है। लेकिन थोड़े से फर्क हैं, वे समझ लेने जरूरी हैं। सत्य तो दार्शनिक की खोज है। वह खोजता है कि सत्य क्या है? व्हाट इज ट्रुथ? जैसे, दो और दो मिल कर चार होते हैं, यह सत्य है। कि दो और दो मिल कर पांच नहीं होते; दो और दो मिल कर तीन नहीं होते; दो और दो मिल कर चार होते हैं। यह गणित का सूत्र सत्य है, लेकिन सत नहीं है। क्योंकि यह मनुष्य का ही हिसाब है। दिस इज ट्रू, बट नाट एक्झिस्टेंशियल। दो और दो मिल कर चार होते हैं, यह मनुष्य की ही ईजाद है। यह सत्य तो है, सच नहीं है। सत नहीं है।


तुम सपना देखते हो रात। सपना सत तो है, सत्य नहीं है। सपना है तो! नहीं तो देखोगे कैसे? होना तो है, लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि सत्य है। क्योंकि सुबह तुम पाते हो कि न होने के बराबर है। लेकिन हुआ जरूर! सपना घटा।


तो दुनिया में ऐसी घटनाएं हैं, जो सत्य हैं और सत नहीं। और ऐसी भी घटनाएं हैं, जो सत हैं लेकिन सत्य नहीं। गणित सत्य है, सत नहीं। गणित का एक निष्कर्ष सत्य हो सकता है, सत नहीं। सपना है; सपना सत है, सत्य नहीं।


परमात्मा दोनों है--सत भी, सत्य भी। और इसलिए न तो उसे गणित से पाया जा सकता-- विज्ञान से उसे नहीं पाया जा सकता, क्योंकि विज्ञान खोजता है सत्य को; और न उसे काव्य, कला, आर्ट्स से पाया जा सकता है, क्योंकि कला खोजती है सत को। परमात्मा दोनों है, सत+सत्य। इसलिए न तो कला उसे पूरा खोज सकती है और न विज्ञान। दोनों अधूरे हैं।


और इसीलिए धर्म की खोज दोनों से पृथक है। धर्म उसकी तलाश है, जो दोनों है, एक साथ है। जो इतना सत्य है जितना कि गणित का कोई भी फार्मूला और जो इतना सत है जितनी काव्य की कोई भी धारणा। वह दोनों है, और दोनों नहीं है। अगर तुम आधे से देखोगे तो चूक जाओगे। अगर तुम दोनों को मिला कर देखोगे तो ही उसे पा सकोगे।

इक ओंकार सतनाम 

ओशो

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