Wednesday, February 19, 2020

ऐसे प्रश्न मत पूछो कि सत्य क्या है?


बुद्ध के पास एक बार लोग एक अंधे को ले आए थे। क्योंकि अंधा बड़ा जिद्दी था और कहता था कि प्रकाश है ही नहीं। और कहता था, ऐसा भी नहीं है कि मैंने अपने मन को अवरुद्ध कर रखा है। मैं बहुत मुक्तमन व्यक्ति हूं। लेकिन प्रकाश है ही नहीं और लोग व्यर्थ की झूठी बातें और कपोलकल्पनाओं में पड़े हैं। अगर प्रकाश है तो मैं छूकर देखना चाहता हूं। स्वभावत:, अंधा छूकर चीजों को देखता है, टटोलकर देखता है। तो वह कहता है, प्रकाश अगर है तो ले आओ, मैं छूकर देख लूं; छू लूं तो मैं मान लूं।


अब प्रकाश को कैसे छुओगे! लेकिन अगर प्रकाश को न छुओ तो क्या इससे यह सिद्ध होता है कि प्रकाश नहीं है? लेकिन अंधे की बात में भी बल है। उसके पास स्पर्श की ही तो इंद्रिय है जिससे वह पहचानता है।


वह कहता है, चलोस्पर्श न करवा सको, जरा प्रकाश को बजाओ, तो मैं सुन लूं मेरे कान ठीक हैं। चलो, यह भी न कर सको तो प्रकाश को मेरे मुंह में रख दो, मैं जरा उसका स्वाद ले लूं मेरी जिह्वा भी ठीक है। यह भी नहीं होता! तो जरा प्रकाश को मेरे नासापुट के पास ले आओ, मुझे गंध बिलकुल ठीक से आती है, मैं उसकी गंध ले लूं। कुछ तो प्रमाण दो! कुछ तो ऐसा प्रमाण दो जो मेरी सीमा और समझ के भीतर पड़ता है।


लेकिन प्रकाश को न सूंघा जा सकता है, प्रकाश में कोई गंध होती ही नहीं। न प्रकाश को छुआ जा सकता, क्योंकि प्रकाश का कोई रूप नहीं होता, कोई देह नहीं होती, कोई काया नहीं होती। न प्रकाश को चखा जा सकता, क्योंकि प्रकाश में कोई स्वाद नहीं होता। न प्रकाश को बजाया जा सकता, प्रकाश में कोई ध्वनि नहीं होती। तो अंधा खिलखिलाकर हंसता और वह कहता, फिर क्यों व्यर्थ की बातें करते हो? प्रकाश है ही नहीं। और मैं ही अंधा नहीं हूं, तुम सब अंधे हो। फर्क सिर्फ इतना है कि मैं ईमानदार अंधा हूं, तुम बेईमान अंधे हो। तुम उस प्रकाश की बातें कर रहे हो जो नहीं है, और मैं उसको स्वीकार नहीं करता।


नास्तिक यही तो कहता है कि मुझमें और तुममें इतना ही फर्क हैयह फर्क नहीं है कि ईश्वर हैफर्क इतना है कि मैं ईमानदार, मैं वही कहता हूं जो मुझे दिखायी पड़ता है, तुम उसकी बातें करते हो जो दिखायी नहीं पडता। तुम अदृश्य के संबंध में नाहक अटकलें लगाते हो।


यही उस अंधे ने बुद्ध से कहा था। बुद्ध ने कहा कि मैं तेरी बात समझता हूं मुझे तेरी बात में जरा भी विरोध नहीं है। लेकिन उन्होंने जो लोग उस अंधे को लेकर आए थे, उनसे कहा कि तुम्हारी बात गलत है, तुम इसे समझाने की कोशिश मत करो। मैं एक बड़े चिकित्सक को जानता हूं जो आंखें ठीक कर सकता है, तुम इसे चिकित्सक के पास ले जाओ।


छह महीने की औषधि से उस आदमी की आंखों की जाली कट गयी। वह अंधा नहीं थाअंधा कोई भी नहीं है, सिर्फ आंखों पर जाली हैउसकी आंखों की जाली कट गयी। वह नाचता हुआ आया। वह बुद्ध के चरणों में गिर पडा। उसने कहा, अब मैं जानता हूं कि प्रकाश है और मुझे क्षमा कर दें, मैंने जो विवाद किया था वह व्यर्थ था, मुझे क्षमा कर दें। मैं अंधा था। सिर्फ अंधा था मैं और अपने अंधेपन को भी पकड़कर बैठा था। मैंने जो विवाद किया था वह ठीक नहीं था। प्रकाश है। और अब मैं जानता हूं कि मैं भी अगर किसी को चाहूं कि प्रकाश एकर्श कर ले, स्वाद ले ले, ध्वनि सुन ले, गंध ले ले, तो मैं भी यह न कर पाऊंगा, और फिर भी प्रकाश है।

प्रकाश का पता ही तब चलता है जब आंख खुलती है। प्रकाश आंख का अनुभव है, और सत्य तुम्हारी अंतर्दृष्टि का। प्रकाश बाहर की आंख का अनुभव है, सत्य तुम्हारी भीतर की आंख का। अंतश्चक्षु खुलें, तो सत्य का पता चलता है। तुम ऐसे प्रश्न मत पूछो कि सत्य क्या है? ऐसा ही पूछो कि अंतश्चक्षु कैसे खुलें? उसी की तो बात चल रही है रोज। हजारहजार उपाय और विधियों से उसी की बात चल रही है कि अंतश्चक्षु कैसे खुलें?

ध्यान अंतश्चक्षु को खोलने की औषधि है। तुम ध्यान में लगो, तुम सत्य की व्यर्थ की बातों में मत पड़ी, अन्यथा दार्शनिक हो जाओगे। आस्तिक हो जाओगे, नास्तिक हो' जाओगे, विवादी हो जाओगे, तार्किक हो जाओगे, पंडित हो जाओगे, लेकिन कभी जानी न हो सकोगे। ध्यान के अतिरिक्त कोई कभी ज्ञानी नहीं हुआ है।

एस धम्मो सनंतनो

ओशो

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