Tuesday, September 22, 2015

संन्यास में प्रवेश

मैं मानता हूं कि जो व्यक्ति संन्यास में एक बार जाएगा वह लौटेगा नहीं। लेकिन यह संन्यास के अनुभव में सामर्थ्य होनी चाहिए कि वह न लौटे। यह सिर्फ कसम और नियम और लॉ और कानून नहीं होना चाहिए। लेकिन व्यक्ति को तो इसी भाव से संन्यास में प्रवेश करना चाहिए कि मैं मुक्त प्रवेश करता हूं। कल अगर मुझे लगे कि प्रवेश गलत हुआ, निर्णय भूल थी, तो मैं वापस लौट सकता हूं।

हर आदमी को अपनी भूल से सीखने का हक होना चाहिए। और भूल से ही सीख मिलती है। इस दुनिया में सीखने का और कोई उपाय भी नहीं है। लेकिन जहां भूल परमानेंट करनी पड़ती हो कि हम उससे सीख ही न सकें, फिर वहां जिंदगी में ज्ञान की जगह अज्ञान आरोपित हो जाता है। इसलिए आजीवन संन्यास ने संन्यासी को ज्ञानी कम, अज्ञानी बनाने में ज्यादा सहयोग दिया है।

दो मुल्क हैं पृथ्वी पर जरूर, जहां पीरियाडिकल रिनंसिएशन की अलग व्यवस्था है। आजीवन संन्यास की व्यवस्था भी है बर्मा में, थाईलैंड में, और सावधिक संन्यास की व्यवस्था भी है। कोई व्यक्ति साल में तीन महीने के लिए संन्यासी हो जाता है। इसलिए बर्मा में लाखों लोग मिल जायेंगे जो संन्यासी रह चुके हैं, कोई तीन महीने को, कोई छः महीने को, कोई साल भर को। फिर दो-चार वर्ष में सुविधा होती है, वह आदमी फिर तीन-चार महीने के लिए संन्यास की दुनिया में चला जाता है।

एक आदमी अगर अपने चालीस साल के अनुभव की जिंदगी में दस बार महीने-महीने भर के लिए भी संन्यासी हो जाये, तो मरते वक्त वह वही आदमी नहीं होगा, जो वह आदमी होगा जिसने कभी संन्यास की जिंदगी में प्रवेश नहीं किया। साल में अगर एक महीने के लिए भी कोई संन्यासी हो जाये, तो आदमी वही नहीं लौटेगा जो था। बाकी आने वाले ग्यारह महीने वर्ष के दूसरे हो जाने वाले हैं। सारी जिंदगी तो व्यक्ति के भीतर से निकलती है।

तो मैं तो मानता हूं कि आजीवन लेने की जरूरत ही नहीं है। आजीवन हो जाये, यह सौभाग्य है। आजीवन फैल जाए, यह परमात्मा की कृपा है। लेकिन अपनी तरफ से तो एक पल का निर्णय भी बहुत है। आज का निर्णय काफी है।

ज्‍यों कि त्‍यों रख दीन्‍हीं चदरियां

ओशो 

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