Monday, November 2, 2015

संसार में दो तरह के लोग हैं; असाधु हैं और साधु हैं

एक आदमी स्त्रियों के पीछे भाग रहा है और दीवाना है। फिर एक आदमी छोड़ देता है स्त्रियों को, उनकी तरफ पीठ करके जंगल की तरफ भागता है। तुम बिलकुल समझ पाते हो। यह भाषा कामवासना की ही है। यह ब्रह्मचर्य कोई कामवासना के बाहर नहीं है, उसके भीतर है। लेकिन तुम कृष्ण के ब्रह्मचर्य को न समझ पाओगे। क्योंकि वह तुम्हारी कामवासना के बिलकुल बाहर है; विपरीत नहीं, बाहर। इस बात को ठीक से समझ लो।

विपरीत तो द्वंद्व के भीतर ही होता है। मोक्ष संसार के विपरीत नहीं है, संसार के पार है। संतत्व असाधु के विपरीत नहीं है, साधु-असाधु दोनों के पार है। अगर असाधु सीधा खड़ा है, तो साधु शीर्षासन कर रहा है। आदमियों में कोई भी फर्क नहीं है, वे दोनों एक जैसे हैं। तुम किसी साधु के पास जाओ, तुम हजार स्वर्ण-मुद्राएं उसके चरणों में रखो और वह फेंक दे और कहे, ‘हटाओ, इस कचरे को यहां क्यों लाए?’ तुम बिलकुल समझ जाओगे कि यह है साधु। लेकिन अगर वह कुछ भी न कहे, तुम हजार स्वर्ण-मुद्राएं उसके चरणों में रखो, वह चुपचाप बैठा रहे, तब तुम्हें संदेह पैदा होगा। समझ मुश्किल में पड़ी।

ऐसा हुआ, कबीर का बेटा था कमाल। और कबीर अगर साधु हैं तो कमाल संत हैं। बेटा बाप से एक कदम आगे था। और कबीर को तो लोग समझ पाते थे, कमाल को नहीं समझ पाते थे। काशी के नरेश ने कबीर से पूछा कि कई लोग कमाल को भी पूजते हैं, उसके पास भी जाते हैं। लेकिन मुझे कमाल समझ में नहीं आता। नरेश को भिखारी समझ में आ सकता है। कबीर समझ में आते थे। सब छोड़े हैं।

नरेश ने कहा, ‘इस कमाल को तो तुम अलग ही कर दो यहां से। यह एक उपद्रव है। यह लोभी मालूम पड़ता है।’
कबीर ने पूछा, ‘कैसे तुमने पता लगाया?’

तो नरेश ने कहा,’एक दिन मैं गया एक बहुमूल्य हीरा लेकर। और मैंने कमाल को कहा कि यह बहुमूल्य हीरा भेंट लाया हूं। तुम्हारे पास भी हीरे लाया हूं, तुम कहते हो, पत्थर है। हृदय मेरा गदगद हो जाता है। व्यर्थ है, मैं समझता हूं!’

कमाल ने कहा, ‘ले ही आये हो तो अब बोझ को कहां वापिस ले जाओगे? रख जाओ।’ यह बात जरा कठिन हो गयी। तो मैंने पूछा कि ‘कहां रख दूं?’ तो कमाल ने कहा कि ‘अब पूछते हो, कहां रख दूं? समझे नहीं; लेकिन ठीक है–‘ झोपड़े में जहां कमाल बैठा था, सनोरियों का झोपड़ा था–‘छप्पर में खोंस दो।’

तो सम्राट ने कहा, ‘मैं छप्पर में खोंस आया हूं। लेकिन मैं जानता हूं कि मैं बाहर नहीं निकला होऊंगा कि हीरा निकाल लिया गया होगा। अब तक तो बिक भी चुका होगा।’ कबीर ने कहा, ‘तुम एक बार और जाकर पता तो लगाओ कि हीरे का क्या हुआ?’

सम्राट गया और उसने कमाल से पूछा कि कोई छह महिने हुए एक हीरा मैं लाया था, बड़ा बहुमूल्य था। तुमने कहा, ‘छोड़ जाओ’, मैं झोपड़े में खोंस गया था। वह हीरा कहां है?’

कमाल हंसने लगा और उसने कहा, ‘उस दिन भी मैंने कहा था वह हीरा नहीं है, पत्थर है। और इसलिये तो कहा था कि छोड़ जाओ, क्योंकि अब ले ही आये हो, इतनी नासमझी की यहां तक ढोने की, अब वापिस कहां वजन को ले जाओगे? फिर तुम झोपड़े में खोंस गये थे। अब मुझे पता नहीं। अगर किसी ने निकाल न लिया हो तो वहीं होगा। और किसी ने निकाल लिया हो तो हम कोई उसकी रक्षा करने यहां नहीं बैठे हैं!’ संदेह पक्का हो गया कि हीरा निकाल लिया गया है। लेकिन फिर भी चलते-चलते सम्राट ने आंख उठाकर देखा, हैरान हुआ। हीरा वहीं था। वह निकाला नहीं गया था। तुम संन्यासी के पास रुपये लेकर जाओ और वह कहे कचरा है, हटाओ, तुम्हें समझ में आता है। लेकिन अगर सच में ही कचरा है, तो हटाने की इतनी जल्दी भी क्या? कमाल का संतत्व तुम्हारी पकड़ में न आयेगा। क्योंकि कमाल कहता है, पत्थर है, अब कहां ले जाओगे? कमाल कहे कि पत्थर है, हटाओ तो समझ में आता है। लेकिन जो आदमी कहता है, पत्थर है, हटाओ यहां से, वह विपरीत बातें कह रहा है।

अगर पत्थर है तो इतनी हटाने की जल्दी क्या है? पत्थर तो बहुत पड़े थे कमाल के झोपड़े के पास; और कभी नहीं चिल्लाया कि हटाओ। हीरे को देखकर चिल्लाता है, हटाओ। तो वह कहता भला हो कि पत्थर है लेकिन उसको भी दिखाई पड़ता है, हीरा है। उसे भी डर लगता है, उसे भी भीतर लोभ पकड़ता है। पर उसे न कोई डर है, न कोई लोभ है; तो वह कहता है, ‘अब ले ही आये, एक भूल की, अब और दूसरी भूल क्या करनी? छोड़ जाओ।’

पर जो संत तुमसे कहेगा, छोड़ जाओ यह हीरा, वह तुम्हारी समझ के बाहर हो गया। वह धर्म के भीतर होगा, तुम्हारी बुद्धि के बाहर हो गया। और धर्म होता ही तब है, जब बुद्धि के कोई बाहर हो जाता है।

बड़ा बारीक फासला है साधु और संत का। बारीक है और बहुत बड़ा भी है। और पहचान बड़ी मुश्किल है। कैसे जानोगे कि इस आदमी की काम-वासना खो गयी, इसलिये ब्रह्मचर्य है! या इस आदमी ने कामवासना को दबा लिया है, इसलिये ब्रह्मचर्य है? ऊपर से तो ब्रह्मचर्य दिखाई पड़ेगा। और जिसने दबाया है, उसका ज्यादा दिखाई पड़ेगा। क्योंकि जिसे हम दबाते हैं, उसके विपरीत को हम उभारकर दिखाते हैं। हमें खुद ही डर होता है कि अगर विपरीत दिखाई न पड़ा, तो कहीं जो छिपा है वह दिखाई न पड़ जाये! और जिसने ब्रह्मचर्य को कामवासना दबाकर नहीं पाया; जिसकी कामवासना तिरोहित हो गई, इसलिये पाया उसके ब्रह्मचर्य में प्रदर्शन नहीं होगा। वह दिखाने की कोई चिंता नहीं होगी। क्योंकि जो है ही नहीं, जिसे छिपाना नहीं है, उसके विपरीत को दिखाना क्या? बड़ा कठिन है।

तो अकसर तो दमित ब्र्रह्मचारी तुम्हें दिखाई पड़ जाएगा, तुम पहचान जाओगे। लेकिन जिसकी वासना शमित हो गयी, शांत हो गयी, वह तुम्हारी पहचान में न आएगा। प्रदर्शनकारी दिखाई पड़ जाता है। जिसका कोई प्रदर्शन नहीं है, कोई एक्जीबिशन नहीं है, वह दिखाई नहीं पड़ेगा।

बिन बाती बिन तेल 

ओशो 

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