Saturday, November 14, 2015

परमात्मा को पाया नहीं जा सकता....

     पाने की भाषा ही अहंकार भी भाषा है। पाने का अर्थ है, मैं रहूं और मेरा परिग्रह बढ़े। धन भी हो मेरे पास, पद भी हो मेरे पास, समाधि भी मेरे पास, स्वर्ग भी मेरे पास, परमात्मा भी मेरे पास। मेरी तिजोड़ी में सब बंद हो जाए। मेरी मुट्ठी में सब हो। परमात्मा भी छूट न जाए। वह भी मेरी मुट्ठी में होना चाहिए। वह भी मैं विजय करूंगा। अहंकार विजय की यात्रा पर निकलता है। लेकिन परमात्मा को पाने का ढंग अपने को मिटाना है। अपने को बिलकुल नेस्तनाबूद कर देना है। शून्यवत हो जाना है।

इसलिए परमात्मा को पाने की बात ही संभव नहीं है। हम मिटें तो परमात्मा फलित होता है। परमात्मा हमें पा लेता है ऐसा कहना उचित है। हम कैसे परमात्मा को पाएंगे? हम तो बाधा न दें, इतना ही काफी है। हम तो बीच में न आएं, इतना ही बहुत है। हम दीवार न बनें तो धन्यभागी हैं। परमात्मा हमें पा ले और हम रुकावट न डालें। परमात्मा का हाथ हमें पाने आए तो हम भागें न, बचें न, छिपें न। बस इतना ही साधक को करना है छिपे न, बचे न; खोल दे अपने को, उघाड़ दे अपने को; हो जाए नग्न, निर्वस्त्र। कोई छिपाव नहीं, कोई दुराब नहीं। खोल दे अपने हृदय को पूरा पूरा। कहीं कोई रत्ती भर भी बचाव रह गया तो मिलन में बाधा रह जाएगी।

उसकी हसरत है, जिसे दिल से मिटा भी न सकूं।
ढूंढने उसको चला हूं, जिसे पा भी न सकूं।

परमात्मा को पाया नहीं जा सकता। पाने की भाषा ही अहंकार की भाषा है। पाने का अर्थ है, मैं रहूं और मेरा परिग्रह बढ़े। धन भी हो मेरे पास, पद भी हो मेरे पास, समाधि भी मेरे पास, स्वर्ग भी मेरे पास, परमात्मा भी मेरे पास। मेरी तिजोड़ी में सब बंद हो जाए। मेरी मुट्ठी में सब हो। परमात्मा भी छूट न जाए। वह भी मेरी मुट्ठी में होना चाहिए। वह भी मैं विजय करूंगा। अहंकार विजय की यात्रा पर निकलता है। लेकिन परमात्मा को पाने का ढंग अपने को मिटाना है। अपने को बिलकुल नेस्तनाबूद कर देना है। शून्यवत हो जाना है।


सपना यह संसार 

ओशो 


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