Saturday, November 14, 2015

अच्छी आदतें - बुरी आदतें, मन का जाल

विलियम जेम्स ने उल्लेख किया है कि वह एक हॉटल में बैठा एक मित्र के साथ गपशप कर रहा था। रास्ते से गुजरता था एक मिलेट्री का रिटायर्ड कप्तान। सिर पर रख ली थी उस कप्तान ने एक टोकरी, जिसमें अंडे भरे थे। विलियम जेम्स बड़ा मनोवैज्ञानिक था अमरीका का, अपने मित्र से बात कर रहा था, संयोगवशात आदत के संबंध की बात चल रही थी। उसने कहा कि देखो, मैं तुम्हें उदाहरण देता हूं। बाहर की तरफ देखा और जोर से आवाज दी—अटेंशन! वह जो आदमी, कोई बीस साल पहले रिटायर हो चुका था, उसने एकदम टोकरी छोड़ दी और अटेंशन खड़ा हो गया! सारे अंडे फूट गए और रास्ते पर बिखर गए। बड़ा नाराज हुआ! मरने मारने को उतारू हो गया! विलियम जेम्स से कहा, यह भी कोई मजाक है! मुझ गरीब आदमी के साथ! किसी तरह अपना पालन पोषण कर रहा हूं। विलियम जेम्स ने कहा: लेकिन मैंने तुमसे कुछ कहा नहीं, अटेंशन शब्द का उपयोग करने का तो मुझे हक है। तुम न सुनते, तुम न मानते। उस आदमी ने कहा, यह मेरे बस का है क्या? जब अटेंशन कहा जाता है तो अटेंशन यानी अटेंशन। यह मैंने कोई जानकर किया? जानकर मैं करता! यह तो अब अचेतन आदत का हिस्सा हो गया है।

सैनिक को तैयार किया जाता है यंत्र की भांति। इसलिए सैनिक मनुष्यता का सर्वाधिक पतन है। और दुनिया में जब तक सैनिक रहेंगे, तब तक आदमी बहुत ऊंचाइयां नहीं ले सकता। सैनिक को हम खूब सम्मान देते हैं, क्योंकि उसकी आत्मा हम खरीद रहे हैं। सैनिक को हम अच्छी से अच्छी तनख्वाह देते हैं, क्योंकि उसका बड़ा बहुमूल्य जीवन हम नष्ट कर रहे हैं। सैनिक को हम खूब तगमे देते हैं महावीर चक्र इत्यादि…। उसको बड़ी प्रतिष्ठाएं मिलती हैं।

क्यों? क्या कारण है?

कारण है कि वह अपने जीवन की सबसे बहुमूल्य निधि बेच रहा है सस्ते में, दो टुकड़ों में। सैनिक का शिक्षण क्या है? सारे शिक्षण का एक ही सार है कि मनुष्य को नष्ट कर दो और आदतें ही आदतें रह जाएं—राइट टर्न, लेफ्ट टर्न, अटेंशन…। अब रोज किसी आदमी को तीन चार घंटे राइट टर्न, लेफ्ट टर्न; राइट टर्न, लेफ्ट करना पड़े, कब तक सोच सोच कर करेगा? थक जाएगा सोचना। फिर तो एकदम राइट टर्न सुना कि राइट टर्न हुआ। सुनने में और होने में बीच में विचार नहीं आएगा।

एक महिला ने एक मनोवैज्ञानिक को कहा कि मैं अपने पति से बहुत परेशान हूं। ज्यादा तो नहीं, क्योंकि वे मिलिट्री में हैं और कभी कभी आते हैं। मगर जब आते हैं, तो जब भी वे बाएं करवट होते हैं, ऐसे घुर्राते हैं कि मेरी तो नींद लगती नहीं, बच्चे नहीं सो सकते, पड़ोसी तक शिकायत करते हैं। उनका घुर्राना क्या है जैसे सिंह की दहाड़! मगर एक बात है कि जब वे बाएं करवट होते हैं तभी घुर्राते हैं। तो कोई तरकीब?

मनोवैज्ञानिक ने कहा, तरकीब आसान है। जब वे बाएं करवट होते हैं तभी घुर्राते हैं न! तो तू कल जब वे रात सोएं और घुर्राने लगें बाएं होकर, तो कान में उनसे कहना राइट टर्न! पत्नी ने कहा, इससे क्या होगा नींद में? मनोवैज्ञानिक ने कहा कि कहां नींद, कहां होश—सैनिक तो नींद में ही होता है। जागता कहां है? उसको जागने देते नहीं हम। उसको तो अफीम पिलाते हैं। उसको सुलाए रखते हैं। ये सोए हुए आदमी हमें चाहिए। क्योंकि लोगों की हत्याएं करवानी हैं, गोलियां चलवानी है, बम गिरवाने हैं। ये कोई जागे हुए आदमी कर सकेंगे ऐसे काम! इनके लिए तो बिलकुल मुर्दा चाहिए मुर्दा और मजबूत! तू कोशिश तो कर!

पत्नी को कुछ जंची तो नहीं बात, मगर कोशिश करने में हर्ज भी क्या था? कोशिश की और चौंकी। कि जैसे ही उसने कहा, राइट टर्न, पति एकदम करवट बदल कर, राइट टर्न हो गए। घुर्राना बंद हो गया।

नींद में भी हमारी आदतें, हमारी अचेतन आदतें काम करती हैं। नींद में भी हम उनके वशीभूत होते हैं। वे इतनी गहरी चली गई होती हैं कि जागना जरूरी नहीं होता। सैनिक को वर्षों तक हम इसी तरह अचेतन करते हैं। जब वह बिलकुल अचेतन हो जाता है…इसी को शिक्षण कहते हैं—सैनिक का शिक्षण! परेड, कवायद। करवाते रहते हैं उल्टी सीधी परेड, कवायद, जिसका कोई मूल्य नहीं है। क्या सार है आदमी को बाएं घूमो, दाएं घूमो…!

एक दार्शनिक एक बार भर्ती हो गया युद्ध में। जैसे ही उसको कहा, बाएं घूमो, सब तो घूम गए, वह खड़ा ही रहा। पूछा उसके कप्तान ने जाहिर, प्रसिद्ध दार्शनिक था, एकदम कप्तान फौजी भाषा में बोल भी नहीं सकता था; फौजी भाषा तो गाली गलौज की होती है; अगर कोई और होता तो कप्तान ने जो भी गंदी से गंदी गालियां हो सकती थीं, दी होतीं; मगर इससे तो थोड़ा सम्मान से व्यवहार करना पड़ेगा, प्रसिद्ध आदमी है, लोकविख्यात है कहा, महानुभाव…कहना तो चाहता था, हे उल्लू के पट्ठे!…लेकिन कहा, महानुभाव, जब मैंने कहा, बाएं घूम, तो आप खड़े क्यों हैं? दार्शनिक ने पूछा, लेकिन बाएं घूमूं क्यों? बाएं घूमने में प्रयोजन? बाएं घूमने से क्या मिलेगा? जो बाएं घूम गए हैं, उनको क्या मिला? और मैंने यह देखा कि जिसको तुमने बाएं घुमाया, फिर उनको दाएं घुमा दिया: वे फिर वैसे ही के वैसे खड़े हैं जहां मैं खड़ा ही हूं पहले से। मैं वैसे ही का वैसा…इतने उपद्रव में मैं क्यों पडूं? तो पहले सिद्ध करो कि सार क्या है, प्रयोजन क्या है? और फिर यह भी पक्का करो कि फिर दाएं घूम तो नहीं कहोगे। नहीं तो क्या सार, इतना चक्कर मार कर फिर वहीं आ गए! तो पहले ही से वहीं खड़े रहें न!
कप्तान ने कहा कि यह तो आदमी काम का नहीं है। ऐसे सोच विचार करोगे तो सैनिक होने की क्षमता खो देते हो। विचार का सैनिक होने से कोई नाता नहीं है।

संन्यासी को विचार के ऊपर उठना पड़ता है, सैनिक को विचार से नीचे गिरना पड़ता है। एक संबंध में संन्यासी और सैनिक में समानता होती है दोनों निर्विचार। संन्यासी निर्विचार होता है विचार का अतिक्रमण करके, विचार का साक्षी बन कर और सैनिक निर्विचार होता है विचार इत्यादि की झंझट छोड़ कर; जड़वत हो जाता है। भेद बड़ा है, लेकिन समानता भी है।

कप्तान ने सोचा कि यह काम इससे नहीं होने का, तो कहा, भई, तुमसे यह काम नहीं होगा। तुम कोई दूसरा काम करो। अब भर्ती हो ही गए हो, तो तुम को हम चौके में लगा देते हैं। वहां कोई दाएं नहीं घूमना, बाएं नहीं घूमना। छोटे मोटे काम, वह तुम करो। छोटा से छोटा काम दिया मटर के दाने कि बड़े दाने एक तरफ करो, छोटे दाने एक तरफ करो। जब दो घंटे बाद कप्तान आया, तो देखा कि दार्शनिक ठुड्डी से हाथ लगाए वैसा ही का वैसा बैठा है जैसा छोड़ गया था। और दाने वैसे ही के वैसे। एक दाना यहां से वहां नहीं हटाया है। उसने, कप्तान ने पूछा कि कोई अड़चन इसमें भी है आपको? उसने कहा, अड़चन है। अब सवाल यह है कि बड़े कर दो एक तरफ, छोटे कर दो एक तरफ, मंझोल भी हैं कुछ, उनको कहां करो? और जब तक सब चीजें बिलकुल साफ न हो जाएं…मैं बिना विचार के कदम उठाता ही नहीं। तो कप्तान ने कहा, हम आपके हाथ जोड़ते हैं, आप कृपा करके घर जाएं और घर ही विचार करें। यह स्थान आपके लिए नहीं है।

सैनिक को हम आदत में ढालते हैं। धीरे धीरे वह यंत्रवत हो जाता है। तभी तो यह संभव होता कि हिरोशिमा पर एटम बम गिर देता है। नहीं तो सोचेगा नहीं आदमी: एक लाख आदमी मेरे बम गिराने से मर जाएंगे! इससे तो बेहतर है कि मैं कह दूं कि मुझे गाली मार दो। ये एक लाख आदमियों में छोटे छोटे बच्चे होंगे, गर्भिणी स्त्रियां होंगी, अभी अभी विवाहित युवक होंगे, अभी अभी विवाहित युवतियां होंगी, अभी हनीमून पर जाने के लिए तैयार जोड़े होंगे, वृद्ध होंगे, वृद्धाएं होंगी, बीमार होंगे, रुग्ण होंगे यह हीर भरी बस्ती, एक लाख लोग, ये मिट्टी में मिल जाएंगे, एक पांच सेकेंड लगेंगे और राख हो जाएंगे! मैं इन्हें राख करूं?

लेकिन सवाल ही नहीं उठता उसे यह। वह सिर्फ अपनी आज्ञा का पालन करता है। उसे कहा गया है जो, वही करता है। वह उत्तरदायित्व के संबंध में सोचता ही नहीं। उत्तरदायित्व शब्द उसके भीतर होता ही नहीं कि मेरा कोई मानवीय दायित्व भी है; कि मेरे भीतर भी कोई नैतिक अंतस्चेतन होना चाहिए; कि मेरा भी कोई अंतःकरण है। अंतःकरण को तो हम मिटा डालते हैं।

वह एटम बम गिरा कर सैनिक रात मजे से सोया। सुबह जब पत्रकारों ने उससे पूछा कि रात सो सके क्योंकि कौन ऐसा आदमी होगा जो एक लाख आदमियों को मारकर और रात सो सके! उसने कहा, मैं बड़ी निश्चिंतता से सोया। क्योंकि जो काम दिया गया था, वह पूरा कर दिया। फिर नींद के अतिरिक्त और क्या है? नींद मुझे गहरी आई। एक लाख आदमी जल भुन गए और यह आदमी रात भर गहरी नींद सोया रहा! आदमी हमने मिटा दिया इसके भीतर से।

दुनिया में जब तक राष्ट्र हैं, सेनाएं रहेंगी। और जब तक सेनाएं हैं, तब तक करोड़ों लोग बिना आत्मा के जीएंगे। उनका काम ही यही है कि वे मशीन की तरह व्यवहार करें।

भारतीय सरकार ने ठीक ही किया है। यहां मेरे पास जगह जगह से पत्र आ रहे हैं सैनिकों के, जिनमें कुछ संन्यासी हैं, जो बहुत मुझमें उत्सुक हैं उनके पत्र आ रहे हैं कि सरकार की सूचनाएं मिली हैं कि न तो मेरी कोई किताब पढ़ी जाए, न टेप सुने जाएं, न मुझसे किसी तरह का संबंध रखा जाए। मुझसे किसी तरह का भी संबंध रखना सेना से बगावत समझी जाएगी। बात सच है। बात ठीक ही है। क्योंकि मैं जो कह रहा हूं, वह कोई एक ही सेना से बगावत की बात नहीं है, मैं तो चाहता हूं इस दुनिया में सेना रह ही न जाए। इसलिए सरकार ठीक ही बात कह रही है। क्योंकि मेरी बात सैनिकों तक नहीं पहुंचनी चाहिए। अगर यह उन तक पहुंचेगी और उनको यह बोध होना शुरू हो जाए कि उनका जीवन किस तरह नष्ट किया जा रहा है, किस तरह उनकी आत्मा को धूमिल किया जा रहा है, किस तरह उनकी चेतना को आदतों में दबाया जा रहा है, किस तरह उनको मशीनों में बदला जा रहा है, तो शायद उनके भीतर भी अपनी आत्मा को इस तरह नष्ट न होने देने के लिए विचार उठे। मेरी बात खतरनाक हो सकती है।

मेरी बात का मौलिक आधार यही है कि मनुष्य के भीतर सबसे बड़ी कीमती, मूल्यवान चीज है उसकी चेतना। और जिन कारणों से भी चेतना नष्ट हो जाती है, वे सभी कारण घातक हैं। आदत सबसे बड़ी घातक चीज है।

तुमने कहा गया है बार बार कि अच्छी आदतें होती हैं, बुरी आदतें होती हैं; मैं तुमसे कहता हूं कि सब आदतें बुरी होती हैं। आदत मात्र बुरी होती है। आदत ही बुरी होती है। एक आदमी को आदत है कि वह सिगरेट पीता है, इसको हम कहते हैं, बुरी आदत। क्या बुरा है इसमें? यह आदमी धुआं भीतर ले जाता है, बाहर ले जाता है। स्वास्थ्य के खिलाफ है जरूर, शायद सत्तर साल जीता तो अब दो साल कम जीएगा, शायद यह आदमी जानता नहीं कि स्वच्छ और ताजी हवाओं को भीतर ले जाने में ज्यादा सार है ज्यादा आयुवर्द्धक, ज्यादा स्वास्थ्यवर्द्धक यह नाहक हवाओं को गंदा करके भीतर ले जा रहा है, नासमझ, मगर कोई पाप नहीं कर रहा है। और इसको जब समय पर सिगरेट नहीं मिलती है तो तलफ लगती है। मैं इसके धुएं के बाहर भीतर ले जाने को या थोड़ी सी निकोटिन इसके भीतर पहुंच जाने को कोई पाप नहीं मानता। लेकिन बिना सिगरेट के यह नहीं जी सकता, इस बात में असली भूल है। यह आदत का गुलाम हो गया। इसको सिगरेट न मिले तो यह मुश्किल में पड़ जाएगा।

जब पहली दफा उत्तरी ध्रुव पर यात्री गए, तो उनकी नाव फंस गई। सोचा था कि लौट आएंगे समय पर, लेकिन नहीं लौट सके, तीन सप्ताह देर से लौट पाए। उन तीन सप्ताह में उन यात्रियों की डायरी में जो उल्लेख है…भोजन चुक गया, उसकी लोगों को फिक्र नहीं, मछलियां मार कर किसी तरह भोजन कर लेते, सबसे बड़ी दिक्कत खड़ी हो गई कि सिगरेट चुक गई। तीन सप्ताह के लिए सिगरेट नहीं थी। और कैप्टन इतना घबड़ा गया कि लोग जहाज की रस्सियां काट काट कर पीने लगे। अब अगर सब रस्सियां कट जाएं तो फिर यात्रा हो ही नहीं सकती। उसे लोगों को पहरे पर रखना पड़ता कि कोई रस्सियां न काटे। मगर जिनको पहरे पर रखता, वे ही रस्सियां काट कर पी जाते। अब तुम सोच नहीं सकते कि कोई जहाज की सड़ी गली रस्सियों को काटकर और पीएगा। लेकिन आदत आदत है। आदमी किसी भी मजबूरी के लिए राजी हो सकता है। मजबूरी में किसी चीज के लिए राजी हो सकता है।

मैं सिगरेट पीने को पाप नहीं कहता। लेकिन वह जो आदत है…। अगर कोई सिगरेट पीने का मालिक हो, कि जब चाहे पी ले और जब चाहे छोड? दे; आज पी ले और फिर छह महीने नाम न ले, फिर पी ले एक दिन और फिर ऐसे रख दे जैसे कभी न पी थी, तो मैं कुछ एतराज नहीं करूंगा, मैं कहूंगा—यह मालिक है अपना। इसकी मौज! कभी अगर एकाध दहा धुआं उड़ाने का मजा इसे लेना होता है तो ले लेता है। मगर यह कोई आदत नहीं है; तो पाप नहीं है। पाप निकोटिन में नहीं है, पाप सिगरेट में नहीं है, तमाखू में नहीं है, पाप अगर कहीं है तो आदत में है। तो फिर बात बदल जाएगी। फिर हमें पूरा का पूरा दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा।

एक आदमी है कि जिसको आदत है कि रोज सुबह माला जपे। अगर एक दिन माला न जपे, तो तलफ लगती है उसको भी मैं तलफ ही कहता हूं, है वह तलफ ही। हालांकि वह आदमी कहता है कि बिना माला जपे मुझे अच्छा नहीं लगता; मुझे राम से ऐसा लगाव है; प्रभु की मुझे ऐसी याद आती है; वह धार्मिक शब्दों का उपयोग करता है, सच बात यह है कि तकलीफ, वह जब तक माला…अब माला जपने में कौनसी खूबी हो सकती है? गुरिए सरका रहा है और राम राम, राम राम, राम राम और गुरिए सरका रहा है और राम राम, राम राम कर रहा है, जब तक वह अपनी संख्या पूरी न कर ले, अगर एक हजार आठ बार करना है माला का जप तो एक हजार आठ बार न कर ले अगर एक हजार सात बार भी किया तो दिन भर उसे खटक लगी रहेगी कि कुछ कमी रह गई, कुछ कमी रह गई यह आध्यात्मिक ढंग का निकोटिन है। इसमें कुछ बहुत फर्क नहीं है। यह आदत धार्मिक है मगर उतनी ही घातक है जितनी पहली आदत। शायद थोड़ी ज्यादा घातक है। क्योंकि पहली तो बुरी है, ऐसा लोगों को पता है; दूसरी आदत बड़ी अच्छी है, ऐसा लोगों को पता है।

मैं एक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर था। घूमने जाता था रोज सुबह। यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर भी मेरे साथ घूमने जाते थे। उनको आदती थी कि कोई भी मंदिर देखें तो हाथ जोड़कर नमस्कार करना है। मैं जरा परेशान हुआ। क्योंकि जहां से हम गुजरते थे, कहीं मढ़िया हनुमान जी की आ जाए, कहीं शिव जी का शिवलिंग आ जाए, कहीं रामचंद्र जी का मंदिर आ जाए, वे जल्दी से खड़े हो जाएं उनके साथ मुझे भी खड़ा होना पड़े। अब उनके साथ, घूमने उनको ले गया हूं, तो इतना तो शिष्टाचार रखना ही पड़े। मैंने उनसे कहा, यह मामला क्या है? उन्होंने कहा, यह बचपन से मेरी संस्कारशीलता…सुसंस्कार! मेरे माता—पिता बड़े धार्मिक थे। उन्होंने मुझे यह सिखाया। मैंने कहा, यह कोई सुसंस्कार नहीं है, यह सिर्फ एक जड़ आदत है। उन्हें बहुत समझाया, उनके बात कुछ सिर में घुसी।

मैंने कहा कि अगर यह सुसंस्कार है, तो कल तुम मेरे साथ चलो और तय कर लो कि चाहे हनुमान जी मिलें और चाहे शिव जी मिलें, चाहे राम जी मिलें कोई भी मिले नमस्कार नहीं करना। बस पहली हनुमान जी की मढ़िया जैसे जैसे करीब आने लगी, उनकी हालत देखने जैसी! सुबह की ठंडी हवा और उनके माथे पर पसीना। और वे हाथों को अकड़ाए हुए, क्योंकि डरे। कि वे हाथ न जोड़ लें, नहीं तो मेरे साथ…मैंने कहा कि बस यह आखिरी दिन है, आज तय हो जाएगा, या तो मेरा साथ, या हनुमान जी का साथ। अब तुम तय ही कर लो। तुम अपनी पार्टी निश्चित कर लो! वे मेरा साथ छोड़ना भी नहीं चाहते थे—और हनुमान जी का कैसे छोड़ें। और हनुमान जी बैठे हैं, और देख रहे। और बस जैसे—जैसे उनकी मढ़िया करीब आने लगी, वे मुझसे बोले कि माफ करें, मेरी हिम्मत मढ़िया के सामने से बिना नमस्कार किए निकलने की नहीं है मैं गिर पडूंगा। मेरे पैर लड़खड़ा रहे हैं! और मैंने कहा, तुम इसको संस्कार कहते थे? सुसंस्कार? तुम इसको धार्मिकता समझते थे? और कहां के हनुमान हैं यहां! एक पत्थर पर लोगों ने लाल रंग पोत दिया है।

मैंने उनको कहा कि जब अंग्रेजों ने पहली दफा भारत में रास्ते बनाए और रास्ते के किनारे मील के पत्थर लगाए, तो उनको कुछ पता नहीं था, उन्होंने मील के पत्थर लाल रंग से रंगे, क्योंकि लाल रंग दूर से दिखाई पड़ता है। और हरियाली हो चारों तरफ, वृक्ष पौधे हों, तो लाल रंग ही दिखाई पड़ेगा, दूसरा रंग छिप जाएगा। मगर वे बड़ी मुश्किल में पड़े, क्योंकि मील के पत्थर जहां जहां उन्होंने लगाए, लोग उनकी पूजा करने लगे। क्योंकि इस मुल्क में तो लोग हनुमान जी को इसी तरह तो बनाते रहे हैं। कहीं भी पत्थर खड़ा कर दो, लाल रंग पोत दो, दो फूल चढ़ा दो, फिर तुम्हारे पीछे जो आएगा वह झुककर नमस्कार करने वाला है। न हो तो तुम करके देखो। एक पत्थर रख कर अपने घर के समाने लाल रंग पोत दो, सेंदुर पोत कर दो फूल वहां रख दो, बस तुम देखोगे कि चले लोग! और फूल चढ़ने लगे, पैसे भी चढ़ने लगे, नमस्कार भी होने लगे।

और लोगों की मनोकांक्षाएं भी पूरी होने लगेंगी यह भी खयाल रखना। क्योंकि पचास मूरख आएंगे तो दस पांच की तो हो ही जाएंगी पूरी। वैसे भी हो जातीं, वे न आते तो भी। गांव के लोगों को समझाना पड़ा अंग्रेजों को, बहुत मुश्किल से समझाना पड़ा कि भाई, ये हनुमान जी नहीं हैं, यह मील का पत्थर है।

मैंने उसने कहा, कहां के हनुमान जी! बोले कि बात तो आपकी समझ में आती है, मगर मेरा दिल क्यों धड़कता है? बस ठीक हनुमान जी की मढ़िया सामने आई कि उन्होंने तो हाथ जोड़ लिए। उन्होंने मुझसे कहा, आप चाहे साथ रखो, चाहे न रखो, मगर हनुमान जी को छोड़ कर मुझे चैन न रहेगी। मेरा दिन भर मुश्किल में पड़ जाएगा।

अब इसको क्या कहोगे? शराब की लत, अफीम की लत, कि सिगरेट पीने की लत और इस लत में कुछ भेद है?
फिर शराब में तो कुछ केमिकल भी हैं जो नशा लाते हैं। अफीम में तो कुछ है बात, जिससे नशा चढ़ता है। अफीम चाहे हिंदू को पिलाओ, चाहे मुसलमान को, चाहे ईसाई को, तीनों को नशा लगेगा। लेकिन अनुमान जी की मूर्ति के सामने सिर्फ हनुमान के भक्त को ही नशा लगता है और किसी को नहीं लगता। इसलिए मामला शुद्ध मनोवैज्ञानिक है। बाहर कुछ भी नहीं है। मस्जिद के सामने से हिंदू बिलकुल ऐसे निकल जाता है कि उसे पता ही नहीं चलता है कि मस्जिद थी। उसी मस्जिद के सामने मुसलमान का भाव देखो! कैसा भाव—विभोर हो जाता है! वह अल्लाह का घर है। जैन मंदिर के सामने कभी हिंदू को कोई चिंता होती है? शास्त्रों में तो लिखा है कि पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना, मगर अगर जैन मंदिर में शरण मिलती हो तो मत लेना। और जैन शास्त्रों में भी यही लिखा है। क्योंकि शास्त्रों में कुछ भेद नहीं है। ये एक ही तरह के लोग लिखते हैं। इनके नाम, विशेषण भिन्न हों, मगर इनकी बौद्धिकता में कोई भिन्नता नहीं होती। इनकी मूढ़ता में, जड़ता में कोई भेद नहीं होता। जैन शास्त्रों में भी ठीक यही लिखा है कि अगर कोई जैन पाए कि पागल हाथी उसके पीछे पड़ा है और लगता हो कि पास में ही हिंदू मंदिर है, प्रवेश कर जाए तो बच सकता है, मगर प्रवेश मत करना। पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाने से स्वर्ग मिलेगा, मगर हिंदू मंदिर में प्रवेश किया तो नर्क निश्चित है।

यह तो बिलकुल मनोवैज्ञानिक जाल है। इस जाल में तो कुछ भी अर्थ नहीं है। यह तो सिर्फ तुम्हारा बनाया हुआ भ्रम है।

जिनको तुम अच्छी आदतें कहते हो, अगर वे आदतें हैं, तो अच्छी नहीं। मुक्ति, स्वातंत्र्य अच्छी बात है।

अब अगर एक आदमी मजबूर है तीन बजे उठ कर घूमने जाने को चाहे बीमार भी हो, चाहे धुआंधार वर्षा हो रही हो, चाहे बर्फ पड़ रही हो, मगर उसको जाना ही पड़ेगा तो यह मनोवैज्ञानिक रोग है। यह कोई ब्रह्ममुहूर्त में घूमना नहीं है।

एक महिला मेरे पास आई और उसने कहा कि मेरे पति आपके पास आते हैं, हम थक गए, आप ही कुछ करें। क्योंकि शायद आपकी मानें वे, और किसी की तो वे मानते नहीं। मैंने पूछा, क्या अड़चन है? तो उसने कहा कि वे आधी रात उठ आते हैं…सरदार जी थे। बड़े ओहदे पर थे, मिलिट्री में थे। मेरे पड़ोस में ही रहते थे। कभी कभी आते थे… पत्नी ने कहा, आधी रात उठ आते हैं और इतने जोर से जपु जी का पाठ करते हैं एक तो सरदार, फिर मिलिट्री में, मजबूत और फिर जपु जी का पाठ घर में सोना हराम हो गया! न बच्चे सो सकते, न मैं सो सकती। पास पड़ोस के लोग भी एतराज करते हैं। और उनसे कुछ कहो तो वे कहते हैं, तुम सब नास्तिक हो; धार्मिक कार्यों में बाधा डालते हो! अरे तुम भी उठो और तुम भी जपु जी का पाठ करो! मैं तो करता ही इसलिए इतने जोर से हूं कि जिससे तुमको भी कुछ बोध आए। सोए सोए भी तुम्हारे कान में ये शब्द पड़ गए तो अमृत हैं। वे तो सुनने वाले नहीं। दो बजे रात उठ आते!

मैंने उनसे पूछा, मैंने कहा: चरन सिंह, तुम्हारी पत्नी कहती है कि तुम आधी रात उठ कर जपुजी का पाठ करते हो। अरे कहा आधी रात, नहीं, ब्रह्म मुहूर्त! दो बजे सुबह! अंग्रेजी हिसाब से दो बजे सुबह होता है, बिलकुल ठीक। क्योंकि बारह बजे एक दिन खतम हो गया। फिर तो एक बजे, दो बजे…यह तो फिर दूसरे दिन में गिनती है इनकी। अंग्रेजी हिसाब से दो बजे सुबह। कौन कहता है आधी रात? मेरी पत्नी की बातों में मत पड़ना, वह तो उलटी—सीधी खबरें उड़ाती है मेरे बाबत। वह तो कहती है, मैं चिल्ला चिल्ला कर जपु जी का पाठ करता हूं। अरे, यह मेरा सहज स्वर है! इसमें कोई चिल्लाना नहीं है। और क्या आप जैसा धार्मिक व्यक्ति भी इसके विरोध में है? मैंने कहा कि नहीं, तुम करते तो अच्छा ही हो, सिर्फ इन बेचारे अधार्मिकों पर थोड़ी दया करो, और अगर दो से तुम चार बजे कर दो तो अच्छा होगा। उन्होंने कहा, बहुत मुश्किल बात है। तो दो घंटे मैं क्या करूंगा? मैं पगला जाऊंगा। दो बजे के बाद मुझे नींद आती नहीं, आ सकती नहीं, जिंदगी भर का अभ्यास है। वह तो यह समझो कि जपु जी में उलझा रहता हूं, नहीं तो कुछ और उपद्रव कर बैठूंगा। मैंने कहा, यह बात जरूर सोचने विचारने जैसी है! पत्नी को इसका कुछ अंदाज नहीं है।

मैंने पत्नी को कहा कि वे यह कहते हैं कि दो बजे से चार बजे फिर मैं क्या करूंगा? कुछ और उपद्रव कर बैठूंगा। पत्नी ने कहा, अगर कुछ और उपद्रव करना हो तो भइया, जपु जी का पाठ ही करो!

अच्छी आदतें भी आदतें हैं। और जिन चीजों से भी मालकियत खो जाती हो, उनमें आत्मा नष्ट होती है।

एक आदत से आदमी छूटता भी नहीं है कि दूसरी के लिए तैयार कर लेता है। पहले ही तैयारी कर लेता है कि कहीं ऐसा न हो खाली रह जाऊं। लोग आदतें बदलते रहते हैं। सिगरेट पीने वाला पान खाने लगता है। वह कहता है, सिगरेट छोड़ दी, पान खाते हैं। पा खाने वाला पान खाना छोड़ देता है, तमाखू मलने लगता है। वह कहता है, हम तमाखू खाते हैं। मेरे एक परिचित हैं, उन्होंने तमाखू भी छोड़ दी। अब वे नसनी, नस सूंघा करते हैं। वह और भद्दी लगती है, उनकी नाक लाल…और बीच बीच में निकालकर डिबिया वह नसनी…! मैंने उनसे कहा, भइया, तुम तमाखू ही खाते थे तो कम से कम किसी को दिखाई तो नहीं पड़ती थी। सिगरेट पीते थे तो कम से कम थोड़ी देखने दिखाने में ढंग की मालूम पड़ती थी। यह और नससुंघनी तुमने कहां से सीख ली! मगर वह कुछ न कुछ तो चाहिए। एक छोड़ते हैं, दूसरी को पकड़ते हैं।

तुम जरा अपने जीवन को गौर से देखना, यही तुम्हारी गति है। यह मन का ही ढंग है। यह मन का जाल है।

सपना यह संसार 

ओशो 

No comments:

Post a Comment