Tuesday, March 13, 2018

जब कभी कोई आपसे पूछता है कि ध्यान में ऐसा ऐसा अनुभव हो रहा है और आप कह देते हैं ऐसा होना शुभ है, तब तो अहंकार और बड़ा होने लगता है।



और सब समय तो अहंकार ही सिर उठाता रहता है। यह प्रश्न लिखते समय भी अहंकार ने बहुत सोच विचार किया, फिर भी...?

अहंकार के संबंध में एक बात समझो। अहंकार छोटा हो तो उससे मुक्त होना असंभव है। बात तुम्हें बड़ी उल्टी लगेगी, पर मैंने उल्टी बातें कहने का तय ही कर रखा है। अहंकार छोटा हो तो छोड़ना बहुत मुश्किल। अहंकार जितना बड़ा हो उतना ही जल्दी छूट सकता है। जैसे पका फल गिर जाता है, ऐसे ही पका अहंकार गिरता है; कच्चा फल नहीं गिरता। जैसे कोई बच्चा गुब्बारे में हवा भरता जाये, भरता जाये, फुग्गा बड़ा होता जाता, होता जाता, फिर फड़ाक से फूट जाता। ऐसा कभी कभी मैं तुम्हारे अहंकार में हवा भरता हूं। तुम कहते हो, ध्यान, मैं कहता हूं अरे कहा ध्यान, तुम तो समाधिस्थ हो गये! तुम कहते हो, कमर में दर्द होता है; मैं कहता, दर्द नहीं, यह तो कुंडलिनी जागरण है! तुम कहते हो, सिर में बड़ी पीड़ा बनी रहती है, मैंने कहा, कहां की बातों में पड़े हो, यह तो तीसरा नेत्र, शिव नेत्र खुल रहा है।


सावधान रहना! यह फुग्गे में हवा भरी जा रही है। फिर फूटेगा। जब फूटेगा तब तुम समझोगे। 

अहंकार के संबंध में एक बात बहुत आवश्यक है समझ लेनी। इधर मेरे पास पश्चिम से बहुत लोग आते हैं, पूरब के बहुत लोग आते हैं। एक बात देख कर मैं हैरान हुआ हूं. पूर्वीय व्यक्ति को समर्पण करना बहुत सरल है। वह आ कर चरणों में एकदम गिर जाता है। पश्चिमी व्यक्ति को समर्पण करना बहुत कठिन है, चरण छूना ही संभव नहीं मालूम होता, बड़ा कठिन! लेकिन एक और चमत्कार की बात है कि जब पश्चिम का आदमी झुकता है तो निश्चित झुकता है। और पूरब का जब झुकता है तो पक्का भरोसा नहीं। पूरब का आदमी झुकता है तो हो सकता है महज उपचारवश झुक रहा है; झुकना चाहिए, इसलिए झुक रहा है; झुकने की आदत ही हो गई है; बचपन से ही झुकाये जा रहे हैं। 


मेरे पिता मुझे कहीं ले जाते थे बचपन में, वे फौरन बता देते कि जल्दी छुओ इनके पैर। तो मैं उनसे कहता कि आप कहते हैं तो मैं छू लेता हूं बाकी इन सज्जन में मुझे छुने योग्य, पैर छूने योग्य कुछ दिखाई नहीं पड़ता। वे कहते, तुम यह बात ही मत करो। यह मामला रिश्तेदारी का है, औपचारिकता का है; तुम यह विवाद में मत पड़ो। मैं तो जहां तुम्हें कहूं तुम पैर छुओ।

'तुम जहां कहो मैं छू लूंगा। मुझे कोई अड़चन नहीं है। लेकिन एक बात आप खयाल रखना, मैं छू नहीं रहा हूं।


औपचारिकता है। पूर्वीय आदमी को अभ्यास कराया गया है सदियों से : झुक जाओ, विनम्र रहो। अहंकार को बढ़ने का मौका नहीं दिया गया। तो झुक तो जाता है, लेकिन झुकने में कुछ बल नहीं है। बल तो अहंकार से ही आता है और अहंकार तो बढ़ा ही नहीं कभी। पहले से ही पिटीपिटाई हालत है। पश्चिम का आदमी आता है, झुकने की बात उसे कभी सिखाई नहीं गई; किसी के चरणों में झुकने की बात ही बेहूदी मालूम पड़ती है, संगत नहीं मालूम पड़ती। क्यों? क्यों किसी के चरणों में झुकना? अपने पैर पर खड़े होने की बात समझाई गई। संकल्प को बढ़ाओ। मनोबल को बढ़ाओ। आत्मबल को बढ़ाओ। पश्चिम के आदमी को अहंकार को मजबूत करने का शिक्षण दिया गया है। लेकिन जब भी पश्चिम का कोई आदमी झुकता है तो तुम भरोसा कर सकते हो कि यह झुकना वास्तविक है। नहीं तो वह झुकेगा ही नहीं, क्योंकि औपचारिक तो झुकने का कोई कारण ही नहीं है। पूरब के आदमी का कुछ पक्का नहीं है। कभीकभी पूरब का आदमी जब नहीं झुकता है, तब सुंदर मालूम पड़ता है, क्योंकि कम से कम इतनी हिम्मत तो है कि उपचार के, परंपरा के, झूठे शिष्टाचार के विपरीत खड़ा हो सकता है; यह कह सकता है कि नहीं, मेरा झुकने का मन नहीं है।


मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि झुकने के लिए पहले कुछ अहंकार तो होना चाहिए जो झुके। अगर दुनिया की शिक्षा ठीक रास्ते पर चले तो हम पहले अहंकार को बढ़ाने का शिक्षण देंगे। हम प्रत्येक बच्चे को उसके पैर पर खड़ा होना सिखायेंगे। और कहेंगे, संकल्प ही एकमात्र जीवन है। लड़ो! जूझो! संघर्ष करो! झुको मत! टूट जाओ, मिट जाओ, मगर झुको मत! हारना ठीक नहीं, मिट जाना ठीक है। जूझो! जब तक बने, जूझो! और अपने अहंकार को जितनी धार दे सकते हो, धार दो।


यह जीवन का पूर्वार्ध, कम से कम पैंतीस साल की उम्र तक तो अहंकार को परिपक्व करने का शिक्षण मिलना चाहिए। फिर पैंतीस साल के बाद जीवन का दूसरा अध्याय शुरू होता है उत्तरार्ध। फिर समर्पण की शिक्षा शुरू होनी चाहिए। फिर आदमी को सिखाया जाना चाहिए कि अब तुम्हारे पास है चरणों में रखने को कुछ, अब झुकने का मजा है। पहले तो फल को कहना चाहिए कि 'तू लटका ही रहना, छोडना मत झाड़ को; जल्दी मत छोड़ देना, नहीं तो कच्चा रह जायेगा। पक! जितना रस ले सके ले।लेकिन फिर जब फल पक जाये तब भी अटका रहे तो सडेगा। जब फल पक जाये तो छोड़ दे झाडू को, अब बात खतम हो गई।
 
जीवन का यह अनिवार्य हिस्सा है कि जीवन को हमें विरोध से ले चलना पड़ता है।

अष्टावक्र महागीता 

ओशो

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