Tuesday, March 13, 2018

दान की महिमा



दान से क्या संबंध है संसार का?

महावीर ने, बुद्ध ने, वेदों ने, उपनिषदों ने, दान की महिमा गाई है। उस दान की महिमा का अर्थ समझ लेना। उसका अर्थ यह है कि दान इस संसार की व्यवस्था के विपरीत है। दान को महाधर्म कहा, उसका कारण इतना है कि देने का भाव ही बड़ी असंभव बात है। मगर हम वेदों से ज्यादा कुशल हैं। और कृष्ण, बुद्ध को भी हम धोखा दे जाते हैं। हमने दान को भी तरकीब बना ली--कुछ और पाने की! हमने कहा कि ठीक है, लेकिन दान किसलिए, दान क्यों? दान इसलिए कि स्वर्ग में हमें प्रतिफल मिले। दान इसलिए कि पुण्य हमारा अर्जित हो, और इस शरीर के छूटने के बाद हम परमात्मा के सामने खड़े होकर कह सकें कि मैंने इतना दिया है, उसका प्रत्युत्तर चाहिए। दान को भी हमने संसार की भाषा का हिस्सा बना लिया! तब हम दान भी करते हैं, वह भी दान नहीं है। 

दान का अर्थ है, जहां लेना लय न हो, जहां देना ही लय हो; जहां पाने की कोई आशा न हो, अपेक्षा न हो; तो दस गुनी हमेशा होती है। जितना आपके पास होता है, उससे दस गुना आपकी वासना हो जाती है। फिर उतना भी मिल जाए, तो फिर दस गुना आपकी वासना हो जाती है। लेकिन हमेशा आप, जो आपके पास है, उससे दस गुने को मांगते हैं। और जो आप मांगते हैं, उसके मुकाबले आप दस गुना कम, गरीब, दुखी, पीड़ित; हमेशा गरीब, हमेशा दीन बने रहते हैं। 

बड़े से बड़े सम्राट भी दीन-हीन बने रहते हैं। उनके पास धन ज्यादा है, एक भिखारी के पास धन कम है, लेकिन अनुपात, दोनों की मांग का करीब-करीब बराबर है। और अनुपात से दुख होता है, पीड़ा होती है। 

मांग-मांग कर जिंदगी गुजार कर भी मिलता क्या है? चूसकर, इकट्ठा करके मिलता क्या है? दीनता मिटती नहीं, तो कुछ नहीं मिला। 

देने से दीनता मिटती है, मांगने से दीनता बढ़ती है। 

और कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि हमने ऐसे लोग भी देखे हैं, महावीर जैसा नग्न आदमी भी देखा, जिसके पास कुछ भी न रहा, सब दान कर दिया, सब दान कर दिया, आखिरी वस्त्र बचा था, वह भी दान कर दिया। लेकिन महावीर जैसा सम्राट खोजना मुश्किल है। दीनता जरा भी नहीं है। देनेवाले को दीनता कभी पकड?ती ही नहीं। देनेवाला नग्न फकीर भी हो जाए, तो भी मालिक ही होता है। 

जो जानते हैं, वे कहते हैं, जब तक आप देने में समर्थ नहीं हैं; जिस चीज को आप देने में समर्थ नहीं हैं, उसके आप मालिक नहीं हैं। यह बड़ी उल्टी बात है। अगर मैं कोई चीज दे सकता हूं, तो ही उसका मालिक हूं। और अगर नहीं दे सकता हूं, देने में झिझकता हूं, तो मैं उसका गुलाम हूं। और कोई वह जो मुझसे छीन ले, तो मैं परेशान हो जाऊंगा। तो साफ है कि मेरी गुलामी थी। 

जिस दिन हम कोई चीज दे सकते हैं, उसी दिन मालिक होते हैं। 

पाने से कोई मालिक नहीं होता, देने से मालिक होता है। 

अगर आप प्रेम दे सकते हैं, तो आप प्रेम के मालिक हो जाते हैं। अगर आप दया दे सकते हैं, तो आप दया के मालिक हो जाते हैं। अगर आप धन दे सकते हैं, तो धन के मालिक हो जाते हैं। आप जो भी दे सकते हैं, उसके मालिक हो जाते हैं, अगर आप अपना पूरा जीवन दे सकते हैं, तो आप अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं। आप जीवन के मालिक हो जाते हैं। फिर आपसे जीवन कोई भी छीन नहीं सकता। 


जो आप देते हैं, वही आपके पास बचता है। यह गणित जरा अजीब-सा है। जो आप पकड़ते हैं, वह आपके पास नहीं है। जो आप देते हैं, वह आपके पास बच जाता है। इस उल्टे गणित को जो सीख लेता है, दान की कुंजी उसके हाथ में आ जाती है। 


थोड़ा अपने ही जीवन में अनुभव करें--अगर आप को कभी भी कोई सुख की किरण मिली हो, तो थोड़ा खोजें, वह कब मिली थी? आप हमेशा पाएंगे कि सुख की किरण के आसपास देने का कोई कृत्य था। ठीक से निरीक्षण करेंगे, तो जरूर खोज लेंगे यह बात कि जब भी आपको कुछ सुख मिला, तब उसके पास देने का कोई कृत्य था। खोजें, यह नियम शाश्वत है। कुछ न कुछ आपने दिया होगा किसी क्षण में सहज भाव से; मांग न रही होगी, उसके पीछे कोई सौदा न रहा होगा। हृदय प्रफुल्लता से भर जाता है। 

समाधी के सप्तद्वार 

ओशो

No comments:

Post a Comment