Sunday, September 2, 2018

टेढ़ी चाल का नाम मन है


मन सीधा चल ही नहीं सकता। अगर तुम मेरी बात ठीक से समझो, तो मन का अर्थ ही है टेढ़ा—टेढ़ा चलना। टेढ़ी चाल का नाम मन है। जैसे ही चाल सीधी हुई, मन गया। मन सीधी चाल में बचता ही नहीं। इसलिए सरलता से मन भागता है, जटिलता को चुनता है। जितनी जटिल चीज हो, उतनी मन को रुचती है। जितनी कठिन चीज हो उतनी मन को रुचती है। हिमालय चढ़ना हो, जंचता है। परमात्मा में जाना हो, नहीं जंचता; क्योंकि इतनी सरल घटना है कि वहां कोई चुनौती नहीं है, वहां कोई चैलेंज नहीं है। कठिन को जीतने में मजा आता है मन को। सरल को जीतने का उपाय भी नहीं है। सरल को क्या जीतोगे।


परमात्मा से लोग वंचित हैंइसलिए नहीं कि वह बहुत कठिन है, इसलिए वंचित है कि वह बहुत सरल है; इसलिए वंचित नहीं है कि वह बहुत दूर है, इसलिए वंचित है कि वह बहुत पास है। उसमें चुनौती नहीं है।


दूर की यात्रा पर तो मन निकल जाता है, पास की यात्रा में यात्रा नहीं हैजाना कहां है?


तो जितना तुम्हारा मन किसी चीज में जटिलता पाता है, उतना ही रस लेता है; क्योंकि चाल टेढ़ी—मेढ़ी चलने की सुविधा है। सीधेसीधे में साफसुथरे में मन कहता है, "कुछ रस नहीं, क्या करोगे? बात इतनी साफसुथरी है, कोई भी पहुंच सकता हैतुम्हारी क्या विशिष्टता?'


इसलिए तुम्हें कहूं इसे ठीक से सुन और समझ लेना, धर्म बड़ी सीधी चीज है, लेकिन मन के कारण पुरोहितों ने धर्म को बहुत जटिल बनाया, क्योंकि जटिल की ही अपील है। तो उलटीसीधी हजार चीजें धर्म के नाम से चल रही हैं। उपवास करो, शरीर को सताओ, शीर्षासन करके खड़े रहोउलटासीधा बहुत चल रहा है। और वह चलता इसलिए है, क्योंकि तुम्हें जंचता है। अगर मैं तुमसे कहूं कि बात बिलकुल सरल है, बात इतनी सरल है कि कुछ करना नहीं है, सिर्फ खाली, शांत बैठकर भीतर देखना हैतुम मुझे छोड़कर चले जाओगे। तुम कहोगे, "जब कुछ करने को ही नहीं है, तो क्यों समय खराब करना? कहीं और जाएं, जहां कुछ करने को हो।'


सौ गुरुओं में निन्यानबे जटिलता के कारण जीते हैं। वे जितने दांवपेंच बता सकते हैं, उतने बता देते हैं और दांवपेंच में तुम उलझ जाते हो; मन बड़ा रस लेता है, पहुंचते कभी भी नहीं। नहीं पहुंचते तो गुरु कहते हैं, "पहुंचना कोई इतना आसान है? जन्मोंजन्मों की यात्रा है।' नहीं पहुंचते तो गुरु समझाते हैं कि यह तो कर्मों का बड़ा जाल है; यह कभी इतने जल्दी होने वाला है? कभी हुआ है ऐसा? जन्मोंजन्मों तक लोग चेष्टा करते हैं, तब होता है?' अब दूसरे जन्म में इन्हीं गुरु से मिलने का उपाय तो है नहीं। पिछले जन्म में जिन गुरुओं ने जटिल साधनाएं दी थीं, उनसे मिले इस जन्म में कि पूछ लो कि अब भी नहीं हुआ? वह बात ही नहीं होती, क्योंकि दुबारा मिलने का कोई उपाय नहीं। मिल भी लो तो पहचान नहीं होती। तुम खुद को भूल गए हो, तुम्हारे गुरु भी अपने को भूल गए हैं। इसलिए धंधा चलता है।


जटिलता पर सारा खेल है।


तुम समझो इसे: हीरेजवाहरात बहुमूल्य हैं, क्योंकि न्यून हैं। उनका मूल्य उनकी न्यूनता में है; खुद में कोई मूल्य नहीं है। कोहिनूर दो कौड़ी का नहीं है। क्या करोगेखाओगे, पिओगे? समझ लो कि कोहिनूर हर सड़क पर पड़े हों, कंकड़पत्थर की तरह पड़े हों, फिर क्या करोगे? कोहिनूर की कीमत खत्म हो जाएगी। दुनिया भर में हीरेजवाहरात जितने हैं इतने बाजार में लाए नहीं जाते, क्योंकि बाजार में लाने से उनकी कीमत गिर जाएगी। बड़ेबड़े भंडार हैं हीरेजवाहरातों के। उनको रोककर रखा जाता है। और धीरेधीरे बहुत कम संख्या में हीरेजवाहरात बाहर निकाले जाते हैं, क्योंकि अगर उनको सारा का सारा निकाल दिया जाए तो उनकी कीमत ही मिट जाए इसी वक्त। उनकी कीमत उनकी न्यूनता में है।


कोहिनूर एक है, इसलिए मूल्यवान है। क्या कारण होगा इसके मूल्य का? इतना है कि इसको पाना कठिन है। चार अरब मनुष्य हैं और एक कोहिनूर है। तो चार अरब प्रतियोगी हैं और एक कोहिनूर हैबड़ा जटिल मामला है। चार अरब पाने की कोशिश कर रहे हैं, और एक कोहिनूर है! बहुत कठिन है। गांवगांव, सड़कसड़क, पहाड़जंगल, सब जगह कोहिनूर पड़े हों, कौन फिक्र करेगा? और कोई अगर बादशाह रणजीत सिंह या एलिझाबेथ अपने मुकुट में लगाएगी तो लोग हंसेंगे कि इसमें क्या है; कोहिनूर तो गांवगांव पड़े हैं; बच्चे खेल रहे हैं।


न्यूनता का मूल्य है, क्योंकि न्यूनता के कारण पाने में जटिलता पैदा हो जाती है। कुछ चीजों के मूल्य बाजार में बहुत ज्यादा रखने पड़ते हैं, इसलिए वे बिकतीं हैं। अगर उनके मूल्य कम कर दिए जाएं तो उनको खरीददार न मिलें। यह बड़े मजे का अर्थशास्त्र है। तुम सोचते होओगे कि चीजों के दाम कम हों, ज्यादा खरीददार मिलेंगे; कुछ चीजें ऐसी हैं कि उनके खरीददार तभी मिलते हैं, जब उनके दाम इतने हों कि ज्यादा खरीददार न उनको खरीद सकें। रॉल्सरॉयस खरीदनी हो तो कितने खरीददार खरीद सकत हैं? इसका मूल्य इतना ऊंचा रखना पड़ता है कि जो उसे खरीद ले, वह उसकी प्रतिष्ठा बन जाए कि रॉल्सरॉयस खरीद ली। वह प्रतिष्ठा का सिंबल है, प्रतीक है। इसका मूल्य इतना है नहीं, जितना मूल्य चुकाना पड़ता है। मगर लोग पागल हैं। और मन का यह पूरा खेल है।


अगर तुम्हें परमात्मा ऐसे ही घर के पीछे मिलता हो तो तुम्हारा रस ही खो जाए। तुम कहोगे यह तो जन्मोंजन्मों की बात है, ऐसे कहीं मिलता है? ऐसे परमात्मा अचानक एक दिन आ जाए और तुम्हें उठा ले कि "भाई, मैं आ गया, तुम बड़ी प्रार्थना वगैरह करते थे, शीर्षासन लगाते थेअब हम हाजिर हैं, बोलो!' तुम फौरन आंख बंद कर लोगे कि यह सच हो ही नहीं सकता।

सुनो भई साधो 

ओशो

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