Sunday, December 29, 2019

जीवन एक काम है या उत्सव?


पहली बात, अगर जीवन एक काम है, तो बोझ हो जाएगा। अगर जीवन एक काम है, तो कर्तव्य हो जाएगा। अगर जीवन एक काम है, तो हम उसे ढोएंगे और किसी तरह निपटा देंगे। कृष्ण जीवन को काम की तरह नहीं, उत्सव की तरह, एक "फेस्टिविटी' की तरह लेते हैं। महोत्सव है एक। जीवन एक आनंद का उत्सव है, काम नहीं है। ऐसा नहीं है कि उत्सव की तरह लेते हैं तो काम नहीं करते हैं। काम तो करते हैं। लेकिन काम उत्सव के रंग में रंग जाता है। काम नृत्य-संगीत में डूब जाता है। निश्चित ही, बहुत काम न हो पाएगा इस भांति, थोड़ा ही हो पाएगा। "क्वांटिटी' ज्यादा नहीं होगी, लेकिन "क्वालिटी' का कोई हिसाब नहीं है! परिणाम तो कम होगा, मात्रा कम होगी, लेकिन गुण बहुत गहरा हो जाएगा।

कभी आपने सोचा कि काम वाले लोगों ने, जो हर चीज को काम में बदल देते हैं, जिंदगी को कैसा तनाव से भर दिया है। जिंदगी की सारी "एंग्जाइटी', सारी चिंता, यह अति कामवादी लोगों की उपज है। वे कहते हैं, करो, एकदम करते रहो, करो या मरो। उनका नारा यह है--"डू ऑर डाय'। जिंदा हो तो  करो कुछ, अन्यथा मरो। कोई एक काम करो। और उनके पास कोई और दृष्टि नहीं है, लेकिन किसलिए करो? आदमी करता किसलिए है? आदमी करता इसलिए है कि थोड़ी देर जी सके। और जीने का क्या मतलब होगा फिर? फिर जीने का मतलब उत्सव होगा। हम काम भी इसलिए कर सकते हैं कि किसी क्षण में हम नाच सकें। लेकिन काम इतने जोर से पकड़ लेता है कि फिर नाचने का तो मौका ही नहीं आता, गीत गाने का मौका ही नहीं आता; बांसुरी बजाने के लिए फुर्सत कहां रह जाती है, दफ्तर से घर हैं, घर से दफ्तर हैं; घर दफ्तर आ जाता है दिमाग में बैठकर, दिमाग में बैठकर दफ्तर घर पहुंच जाता है, सब गड्डमड्ड हो जाता है, सब उलझ जाता है; फिर जिंदगी भर दौड़ते रहते हैं इस आशा में कि किसी दिन वह क्षण आएगा, जिस दिन विश्राम करेंगे और आनंद ले लेंगे। वह क्षण कभी नहीं आता। वह आएगा ही नहीं। कामवृत्ति वाले आदमी को वह क्षण कभी नहीं आता है।


कृष्ण जीवन को देखते हैं उत्सव की तरह, महोत्सव की तरह, एक खेल की तरह, एक क्रीड़ा की तरह। जैसा कि फूल देखते हैं, जैसा कि पक्षी देखते हैं, जैसा कि आकाश के बादल देखते हैं, जैसा कि मनुष्य को छोड़कर सारा जगत देखता है। उत्सव की तरह। कोई पूछे इन फूलों से कि खिलते किसलिए हो, काम क्या है? बेकाम खिले हुए हो? तारों से कोई पूछे कि चमकते किसलिए हो? काम क्या है? पूछे कोई हवाओं से, बहती क्यों हो? काम क्या है?


मनुष्य को छोड़कर जगत में काम कहीं भी नहीं है। मनुष्य को छोड़कर जगत में महोत्सव है। उत्सव चल रहा है प्रतिपल। कृष्ण इस जगत के उत्सव को मनुष्य के जीवन में भी ले आते हैं। वे कहते हैं, मनुष्य का जीवन भी इस उत्सव के साथ एक हो जाए। ऐसा नहीं है कि उत्सव में काम नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि हवाएं नहीं दौड़ रही हैं। दौड़ रही हैं। ऐसा नहीं है कि चांदत्तारे नहीं चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि फूलों को खिलने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता है, बहुत कुछ करना पड़ता है। लेकिन करना गौण हो जाता है, होना महत्वपूर्ण हो जाता है। "डूइंग' पीछे हो जाती है, "बीइंग' पहले हो जाता है। उत्सव पहले हो जाता है, काम पीछे हो जाता है। काम सिर्फ उत्सव की तैयारी होती है। दुनिया की सारी आदिम जातियों के पास अगर हम जाएं तो वह दिन भर काम करते हैं, ताकि रात नाच सकें; रात ढोल बजे और गीत हो। लेकिन सभ्य आदमी के पास जाएं तो वह दिन भर काम करता है, रात भर काम करता है। और उससे कोई पूछे कि वह काम किसलिए कर रहा है? तो वह कहता है, कल विश्राम कर सकें। विश्राम को "पोस्टपोन' करता है, काम को करता चला जाता है, फिर वह कल कभी नहीं आता। तो मैं कृष्ण के इस महोत्सववादी रुख से राजी हूं। फिर मेरा देखना यह है कि इतना काम करके भी आदमी ने कर क्या लिया? अगर काम करना अपने में ही लक्ष्य है, तब तो बात दूसरी है। लेकिन इतना काम करके हमने कर क्या लिया है?


सिसीफस की कहानी है कि देवताओं ने उसे श्राप दिया है कि वह एक पत्थर की चट्टान को पहाड़ पर चढ़ाकर ले जाए और जब वह "पीक' पर, चोटी पर पहुंचेगा तो पत्थर फिर खिसक कर नीचे चला जाएगा। सिसीफस फिर नीचे जाए, फिर पहाड़ तक खींचे तो वह फिर नीचे चला जाएगा। सिसीफस फिर नीचे जाएगा। वह सिसीफस नीचे से ऊपर तक खींचता है, बड़े काम में लगा रहता है, पहाड़ पर पहुंचता है, फिर पत्थर नीचे खिसक जाता है, फिर वह नीचे आता है, फिर वह पत्थर को ऊपर चढ़ाने लगाता है। काम वाले आदमी की जिंदगी सिसीफस की जिंदगी हो जाती है। चढ़ाता रहता है पत्थरों को, पत्थर गिरते रहते हैं, वह चढ़ाता रहता है। कभी चढ़ाने में लगा रहता है, कभी नीचे गए पत्थर को दौड़कर पकड़ने में लगा रहता है। लेकिन पूरी जिंदगी में वह क्षण नहीं आता जब विराम हो, विश्राम हो, उत्सव हो। वह हो नहीं सकता।


इन काम करने वाले लोगों ने सारी दुनिया को "मैड हाउस' बना दिया है, बिलकुल पागलखाना कर दिया है। और एक-एक आदमी पागल हो गया है। सब दौड़े जा रहे हैं कि कहीं पहुंचना है, यह मत पूछो...मैंने सुना है एक आदमी के बाबत कि वह तेजी से टैक्सी में सवार हुआ और उसने कहा, जल्दी चलो। टैक्सी वाले ने जल्दी टैक्सी चला दी। थोड़ी देर बाद उसने पूछा, लेकिन चलना कहां है? उसने कहा, यह सवाल नहीं है, सवाल जल्दी चलने का है।


हम सब जिंदगी में ऐसे ही सवार हैं। जल्दी चलो। कहां जा रहे हैं आप? सब चिल्ला रहे हैं, "हरी अप'। लेकिन कहां? जोर से करो जो भी कर रहे हो। लेकिन क्यों? क्या होगा इसका फल? क्या पाने की इच्छा है? उसका कुछ पता नहीं। लेकिन इतना समय भी नहीं कि इसको सोचें। इतने में देरी हो जाएगी, पड़ोसी आगे निकल जाएगा। हम सब भागे जा रहे हैं। काम करने वाले लोगों ने, ये अति कामवादी, जिनको दिखाई पड़ता है कि काम ही सब कुछ है, उन्होंने भारी नुकसान पहुंचाए हैं। एक नुकसान तो इन्होंने पहुंचाया है कि जिंदगी से उत्सव के क्षण छीन लिए हैं। दुनिया में उत्सव कम होते जा रहे हैं। रोज कम होते जा रहे हैं। उत्सव की जगह मनोरंजन आता जा रहा है, जो कि बहुत भिन्न बात है। उत्सव की जगह मनोरंजन आ रहा है, जो बिलकुल भिन्न बात है। उत्सव में स्वयं सम्मिलित होना पड़ता है, मनोरंजन में दूसरे को सिर्फ देखना पड़ता है। मनोरंजन "पैसिव' है, उत्सव बहुत "एक्टिव' है। उत्सव का मतलब है, हम नाच रहे हैं। मनोरंजन का मतलब है, कोई नाच रहा है, हमने चार आने दिए और देख रहे हैं। लेकिन कहां नाचने का आनंद और कहां नाच देखने का आनंद। इतना काम हमने कर लिया है कि शाम थक जाते हैं, तो किसी को नाचते हुए देखना चाहते हैं।


कहीं, कामू ने कहीं एक बात लिखी है कि जल्दी वह वक्त आ जाएगा कि आदमी प्रेम भी अपने नौकरों से करवा लिया करेंगे। उसके लिए फुर्सत भी तो चाहिए। काम से फुर्सत कहां है? एक नौकर रख लेंगे घर में कि तू प्रेम का काम कर दिया कर, क्योंकि मुझे तो फुर्सत नहीं होती। इतना काम में लगा हुआ हूं कि यह प्रेम का गोरखधंधा...प्रेम तो उत्सव है। प्रेम से कुछ फल तो निकलता नहीं आगे। अपने में ही जो है, है। तो इसको कौन करेगा? काम वाले लोग नहीं करेंगे। इसके लिए तो सेक्रेटरी रखा जा सकता है, जो इसको निपटा लेगा। काम की अति दौड़ ने उत्सव के क्षण गंवा दिए हैं और उत्सव से जो पुलक आती थी जीवन में, जो थिरक आती थी, वह खो गई है। इसलिए कोई आदमी प्रसन्न नहीं है, प्रमुदित नहीं है, खिला हुआ नहीं है।

कृष्ण स्मृति 

ओशो

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