Sunday, December 29, 2019

इस देश में न राम को, न कृष्ण को, न बुद्ध को, न महावीर को--जैनों के चौबीस तीर्थंकर में किसी को भी नहीं--दाढ़ी-मूंछ नहीं है उनकी प्रतिमाओं में, न ही उनके चित्रों में। क्या कारण होंगे इसके पीछे?



ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि इन सबको दाढ़ी-मूंछ नहीं रही होगी। एकाध को हो सकता है न रही हो, सबको न रही होगी, ऐसा मैं नहीं मान सकता। तथ्यगत वह नहीं है। लेकिन फिर भी, हमने नहीं दी है। तो कुछ कारण होंगे। कई कारण हैं।


बड़ा कारण। पहला कारण तो दाढ़ी-मूंछ आने के पहले व्यक्ति की जो वय है, वह सबसे ज्यादा "फ्रेश' और ताजी है। उसके बाद फिर सब ढलने लगता है। वह ताजगी का, "फ्रेशनेस' का आखिरी क्षण है। उसके बाद चीजें उतरनी शुरू हो जाती हैं। हमने इन लोगों का ताजगी का अनंत सागर अनुभव किया है। इन्हें हमने कभी उतरते नहीं देखा जिंदगी में, इन्हें हमने सदा ताजे देखा है। ऐसा नहीं कि ये बूढ़े नहीं हुए, ऐसा नहीं कि इनका शरीर नहीं ढला। ऐसा नहीं कि इनके जीवन में वार्द्धक्य के क्षण नहीं आए। वह सब आए, लेकिन इनकी चेतना को हमने सदा किशोर देखा है। "इटर्नल यंग'। 


उन्हें हमने कभी भी--उनकी चेतना की जो हमारी समझ है वह हमने पाई है कि वह सदा ही किशोर है। वे उतने ही ताजे हैं, उनकी ताजगी में, उनकी चेतना की ताजगी में कभी कोई फर्क नहीं पड़ा है। और ये सारी मूर्तियां और सारे चित्र व्यक्तियों के चित्र नहीं हैं, व्यक्तियों की मूर्तियां नहीं हैं। उन व्यक्तियों के भीतर हमने जो झांका है, उसके चित्र हैं। "कांस्टेंट फ्रेशनेस', एक युवापन, जो सदा उनके साथ है। कृष्ण को बूढ़ा हम सोच भी नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। ऐसा नहीं है कि वे बूढ़े नहीं हुए। वे बूढ़े हुए लेकिन हम सोच नहीं सकते इस आदमी को, यह बूढ़ा कैसे होगा! और कुछ ऐसे बच्चे भी होते हैं जिनको हम सोच भी नहीं सकते कि ये बच्चे हैं, वे पहले से ही बूढ़े होते हैं।


अभी एक गांव में मैं गया और एक लड़की ने मुझसे कहा--उसकी उम्र कोई तेरह-चौदह साल थी--उसने मुझे कहा कि मुझे तो मुक्ति चाहिए। अब यह लड़की बूढ़ी हो गई। मैंने उससे कहा कि तू बूढ़ी हो गई? मुक्ति की बात! अभी जीया भी नहीं। अभी बंधन में पड़ी भी नहीं, अभी खुलने की बात। लेकिन पर उसने कहा कि मेरे घर में तो, बड़ा धार्मिक घर है, वह मुझे अपने घर ले गई, धार्मिक घर जैसा होता है--उदास, मरा हुआ, मां भी मरी हुई, सारा घर उपवास की छाया में दबा हुआ। स्वभावतः। तो यह लड़की बूढ़ी हो गई। अगर इस लड़की का चित्र बनाना पड़े, तो उसको चौदह साल की उम्र देना "अनआथेंटिक' होगा, अप्रामाणिक होगा। इस लड़की का चित्र बनाना पड़े, तो कैमरा तो चित्र उसका लेगा उसमें चौदह साल आएंगे, लेकिन अगर कोई चित्रकार इसका चित्र बनाए तो अस्सी साल की उम्र बनानी चाहिए। इसके चित्त की उम्र वह हो गई।


बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम, ये सदा "यंग' हैं। लेकिन, हम पच्चीस साल का भी बना सकते थे उनका चेहरा, तब उन पर दाढ़ी-मूंछ होती। वह तेरह-चौदह साल वाला चेहरा, जिसकी दाढ़ी-मूंछ नहीं है, वह हमने क्यों बनाया? उसके पीछे कारण हैं। जो चीज शुरू हो गई, फिर उसका अंत आता है। अगर दाढ़ी-मूंछ हो गई शुरू, अब वह जाएगी भी, गिरेगी भी, बुढ़ापा आएगा भी। तो इसलिए हमने उस जगह से, जहां से वह शुरू ही नहीं हुई है, उसको हमने "लास्ट प्वाइंट' समझ लिया। उसके बाद हमने उनका चित्रण नहीं किया। एक कारण।


दूसरा कारण, पुरुष के मन में सौंदर्य का जो खयाल है, वह स्त्रैण है। पुरुष के मन में सौंदर्य की जो प्रतिमा है, वह स्त्री की है। पुरुष के मन में सौंदर्य की प्रतिमा पुरुष की नहीं है। और ये सारे कवि, और ये सारे चित्रकार, और ये सारे शास्त्रकार पुरुष हैं। अगर कृष्ण को सुंदर बनाना है--और सुंदर बनाना ही है, क्योंकि कृष्ण से ज्यादा सुंदर क्या हो सकता है--तो जो चेहरे की शक्ल होगी, वह स्त्रैण होगी। इसलिए बुद्ध की, कृष्ण की, सबके चेहरे की शक्ल स्त्रैण है। चेहरे पर जो बिंब है, वह स्त्री का है। पुरुष का नहीं है। पुरुष की समझ सौंदर्य की स्त्रैण है। इसलिए सारी दुनिया में जैसे हमारी समझ बढ़ती चली गई, पुरुष ने अपनी दाढ़ी-मूंछ काटकर अलग कर दी। कारण वही है। पहले उसने राम, बुद्ध की साफ की, बाद में अपनी साफ कर दी। उसके मन में खयाल है कि चेहरा तो स्त्री का सुंदर है। तो स्त्री के चेहरे जैसा कैसे उसका चेहरा हो जाए, इसकी चेष्टा में सतत लगा हुआ है।


हालांकि यह बात स्त्री की तरफ से सच नहीं है। यह बात स्त्री की तरफ से सच नहीं है। स्त्री के मन में जो सौंदर्य का अर्थ है, वह सदा पुरुष जैसा है। स्त्री के मन में दूसरी स्त्री बहुत सुंदर नहीं मालूम हो सकती। स्वभावतः, स्त्री के मन में जो सौंदर्य का बिंब है, वह पुरुष के चिह्न का है। अगर स्त्रियां राम, कृष्ण और बुद्ध की मूर्तियां और चित्र बनातीं, तो मेरी अपनी समझ है कि उसमें दाढ़ी-मूंछ अनिवार्य होती। क्योंकि स्त्रियों को वह जंचता ही नहीं, वह स्त्रैण मालूम पड़ते हैं। और मैं आज भी नहीं मानने को राजी हूं यह कि दाढ़ी-मूंछ अलग करने के बाद स्त्री को कोई चेहरा बहुत प्रीतिकर लगता है। नहीं लग सकता। क्योंकि जिस चेहरे से दाढ़ी-मूंछ विदा हो गई, उस चेहरे से पुरुष का कुछ हिस्सा विदा हो जाता है। हो जाता है। आप जरा उल्टा करके सोचें, कि स्त्रियां दाढ़ी-मूंछ लगा लें, तब आपको कितनी प्रीतिकर लगेंगी? आप भी दाढ़ी-मूंछ काटकर उतने ही प्रीतिकर लगते होंगे। स्त्रियां चाहे कहें, चाहे न कहें, क्योंकि स्त्रियों को कहने की स्वतंत्रता भी नहीं रह गई है। उनके सोचने के ढंग भी पुरुष ने तय कर दिए हैं। इसलिए वे कभी "असर्ट' भी नहीं कर सकती हैं। लेकिन आप ध्यान रखें कि जब भी किसी युग में पुरुष-सौंदर्य प्रगट होता है, तो दाढ़ी-मूंछ लौट आती है। दाढ़ी-मूंछ की रौनक वापिस लौट आती है। लेकिन, कभी भी, कहीं भी, जब भी कहीं ऐसा होता है कि पुरुष-सौंदर्य स्थापित होता है, तो दाढ़ी-मूंछ वापिस लौट आती है। लेकिन वह स्त्री को देख-देखकर अगर हम अपना चेहरा निर्धारित करेंगे, तो उसमें दाढ़ी-मूंछ चली जाएगी।


स्त्रियां भी पुरुष जैसे होने की बड़ी कोशिश में लगी रहती हैं। सारी दुनिया में चल रही है दौड़। स्त्रियां पुरुष जैसे कपड़े पहना चाहेंगी, क्योंकि उनके मन में सौंदर्य का अर्थ पुरुष है। पुरुष जैसी घड़ियां बांधना चाहेंगी, क्योंकि उनके मन में सौंदर्य का अर्थ पुरुष है। पुरुष जैसे काम करना चाहेंगी क्योंकि उनके मन में सौंदर्य का प्रतीक पुरुष है। अगर स्त्रियों का समाज किसी दिन जीत गया--जिसका कि डर रोज-रोज पैदा होता जा रहा है--क्योंकि पुरुष काफी दिन मालकियत कर लिया, अब पलड़ा बदलेगा। बहुत दिन हो गई, आप स्त्री के ऊपर बैठे-बैठे, अब स्त्री आपके ऊपर आएगी। जिस दिन स्त्री आपके ऊपर आएगी, कुछ आश्चर्य न होगा कि स्त्री दाढ़ी-मूंछ लगाने की कोशिश करे। कोई आश्चर्य न होगा। आज हमें आश्चर्य लगता है, क्योंकि वह घटना हमारे खयाल में नहीं आती। वैसे वह और तरह से दाढ़ी-मूंछ लगाने की कोशिश में लगी हुई है। वह ठीक पुरुष जैसे होने की कोशिश में लगी हुई है--सब भांति वह पुरुष के बगल में खड़ी हो जाए, पुरुष की दूसरी "कॉपी' बनकर। पुरुष भी उस कोशिश में लगा रहा है। यह "एब्सर्ड' कोशिश है। इसका कोई मतलब नहीं है।


जिन चित्रकारों ने, जिन मूर्तिकारों ने कृष्ण, राम और बुद्ध की मूर्तियां अंकित की हैं, वे पुरुष हैं और स्त्रैण सौंदर्य उनके मन में है, इसलिए ये कोई चित्र और प्रतिमाएं "आथेंटिक' नहीं हैं, प्रामाणिक नहीं हैं। अगर आप जैनों के चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएं देखें तो आपको पता चल जाएगा कि वे बिलकुल एक जैसे हैं। अगर उनके नीचे बने हुए चिह्न अलग कर दिए जाएं तो उनमें कोई फर्क नहीं है। अगर बुद्ध और महावीर की प्रतिमाओं पर से सिर्फ कपड़े का भेद अलग कर दिया जाए तो वे बिलकुल एक जैसी हैं, उनमें कोई फर्क नहीं रह जाता। क्या ये सब शक्लें एक जैसी रही होंगी? नहीं, ये शक्लें एक जैसी नहीं हो सकतीं। एक जैसी शक्लें कब होती हैं! लेकिन बनाने वाले चित्रकार के पास एक जैसे प्रतीक हैं। वह बुद्ध को बनाने वाला चित्रकार भी बुद्ध की मूर्ति को सुंदरतम बनाने की कोशिश कर रहा है। महावीर का चित्रकार भी महावीर की मूर्ति को सुंदरतम बनाने की कोशिश कर रहा है। और तब वह सुंदरतम बनाने की कोशिश में वे शक्लें एक जैसी हो जाने वाली हैं। वे करीब-करीब एक-जैसी हो गई हैं।

कृष्ण स्मृति 

ओशो

No comments:

Post a Comment