Wednesday, February 12, 2020

एक मित्र ने पूछा है, कि आपकी बहुत सी बातें अनेक शास्त्रों से मिलती-जुलती मालूम पड़ती हैं।




न आप मुझे समझ रहे हैं, न शास्त्रों को समझ रहे हैं। मेल-जोल भी बिठालने की कोशिश कर रहे हैं--कि किससे मिलती है बात, किससे नहीं। यह कंपेरिजन, यह तुलना करने की जरूरत क्या है? मैं सीधा आपसे बातें कर रहा हूं। इसमें बीच में और किसी को मिलाने-जुलाने के लिए लाने की आवश्यकता क्या है? और अगर आप लाएंगे तो क्या आप मुझे समझ सकेंगे? आपका चित्त अगर इस तुलना में पड़ जाएगा तो समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा।


सीधी सी बात मैं कह रहा हूं, उसे सीधे समझने की कोशिश करें। बीच में और बहुत शास्त्रों को, गुरुओं को, शास्ताओं को लाने का क्या प्रयोजन है? अगर सीधे आप समझने की कोशिश करेंगे तो बड़ी आसानी हो जाती है। और तुलना करके समझने की कोशिश करेंगे तो बहुत कठिन हो जाता है। क्योंकि शब्दों की ही तो तुलना करेंगे। और शब्दों की तुलना से इतनी भ्रांतियां पैदा हुई हैं, जिनका कोई हिसाब नहीं है। क्योंकि पहले तो जो मैं कहना चाहता हूं, वही शब्द में आधा मर जाता है। फिर आप जो समझना चाहते हैं, अगर तैयार हैं किसी शास्त्र के माध्यम से समझने को तो जो आधा बचता है, उसकी हत्या आप कर देते हैं। फिर शब्द बिलकुल थोथा, चली हुई कारतूस की तरह आपके पास पहुंचता है, जिसमें कोई प्राण नहीं रह जाते। समझने की कोशिश सीधी होनी चाहिए।


आप एक गुलाब के फूल को देखते हैं तो आप जमाने भर के गुलाब के फूलों से तुलना करते हैं! तब उसको देखेंगे या कि सीधा देखेंगे? और क्या एक गुलाब के फूल की तुलना, किसी भी दूसरे गुलाब के फूल से की जा सकती है? कोई जरूरत भी नहीं है, संभावना भी नहीं है। हर गुलाब का फूल अपनी तरह का फूल है। अनूठा है, अद्वितीय है, बेजोड़ है। छोटा सही, बड़ा सही, कैसा भी सही--वह अपने तरह का है। उसे आप दूसरे गुलाब के फूल से कैसे तौलिएगा? और तौलने में एक बात तय है, इस गुलाब के फूल को देखने से आप वंचित रह जाएंगे।


आज रात आकाश में तारे निकले हुए हैं। इनको तौलिए पिछली रात के तारों से? और इसमें आप भूल जाइए, भटक जाइए और फिर इस रात के तारे आपको दिखाई नहीं पड़ेंगे। रोज चांद निकलता है, रोज सूरज निकलता है। हम रोज तौलते हैं हर चीज को!


एक मित्र आए। उन्होंने कहा कि यहां के वृक्ष तो बहुत अच्छे हैं, लेकिन एक और हिल स्टेशन है, वहां के और भी अच्छे हैं। मैंने उनसे कहा, इन वृक्षों को देखिए। ये जो आनंद दे सकते हों, उसे पाइए। ये जो संदेश दे सकते हों, उसे सुनिए। लेकिन और किसी पहाड़ी के वृक्षों को बीच में लाने का प्रयोजन क्या है? और मैंने उनसे कहा, आप जब उस पहाड़ी पर जाओगे, तब किन्हीं और पहाड़ियों के वृक्षों को बीच में ले आओगे। ऐसे आप कभी भी सत्यों को सीधा नहीं देख सकेंगे।


तुलना करने वाला मन कभी भी सीधा देखने में समर्थ नहीं रह जाता। और जो भी चीज देखनी हो, सीधी देखनी चाहिए। बीच में किसी को लेने की और लाने की आवश्यकता नहीं है। आंखों पर जब किसी और चीज का पर्दा पड़ जाता है तो फिर हम देखते नहीं, हम सिर्फ तुलना करते रह जाते हैं। और देखने से जो उपलब्ध हो सकता था, उससे व्यर्थ ही वंचित हो जाते हैं।


तो मैं निवेदन करूंगा तुलना क्यों करें। किसी दिन जब सत्य का अनुभव होगा, जीवन की प्रतीति होगी तो जरूर आपको पता चल जाएगा कि हजारों-हजारों लोगों को वह प्रतीति हुई है। और हजारों लोगों ने उस प्रतीति को शब्द देने के प्रयास किए हैं। हजारों किताबों में वे शब्द लिखे हुए हैं। लेकिन जब आपको प्रतीति होगी, तभी उन शब्दों का अर्थ भी आपके सामने प्रगट होगा और खुलेगा, उस प्रतीति के पहले उन शब्दों को आप पकड़ लेंगे तो न तो अर्थ खुलेगा, न रहस्य खुलेगा उनका, बल्कि उन शब्दों के पकड़ लेने के कारण, जो अनुभव आपको हो सकता था--सीधा, इमीजिएट, प्रत्यक्ष, वह भी आपको नहीं हो सकेगा।


शब्दों का एक रोग है हमारे मन को। हम उन्हें पकड़कर इकट्ठा कर लेते हैं। जैसे हम धन इकट्ठा करते हैं, ऐसे ही हम शब्द इकट्ठे कर लेते हैं। और जितने ज्यादा शब्द हमारे मन पर इकट्ठे हो जाते हैं, उतना चीजों को सीधा देखना कठिन हो जाता है।

असंभव क्रांति 

ओशो

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