Tuesday, February 11, 2020

सम्यक श्रवण को उपलब्ध होने का उपाय क्या है?


उपाय है: तन्मयता से सुनना। उपाय है, ऐसे सुनना जैसे एकएक शब्द पर जीवन और मृत्यु निर्भर है। उपाय है, ऐसे सुनना जैसे पूरा शरीर कान बन गया; और कोई अंग न रहे। ऐसे सुनना, जैसे यह आखिरी क्षण है; इसके बाद कोई क्षण न होगा; अगले क्षण मौत आने को है। ऐसी सावधानी से सुनना कि अगर अगले क्षण मौत भी आ जाए, तो पछताना न पड़े।


सम्यक श्रवण को सीखने का अर्थ है, सुनते समय सोचना नहीं, विचारक नहीं। क्योंकि तुम अगर विचार रहे हो, तो सुनेगा कौन? और मन की यह आदत है।


मैं बोल रहा हूं और तुम सोच रहे हो कि ये ठीक कहते हैं कि गलत कहते हैं! तुम सोच रहे हो कि तुम्हारे तर्क में बात पटती, नहीं पटती! तुम सोच रहे हो कि तुम्हारे संप्रदाय से मेल खाती, नहीं खाती! तुम सोच रहे हो कि तुमने जिसे गुरु माना, वह भी यही कहता, नहीं कहता!


तुम मुझे सुन रहे हो, वह ऊपरऊपर रह गया, भीतर तो तुम सोच में लग गए।


मैं देखता हूं अगर तुमसे मेल खाती है, तुम्हारा सिर हिलता है कि ठीक। इसलिए नहीं कि मैं ठीक कह रहा हूं। अगर उतना तुम सुन लो, तो तुम श्वेतकेतु हो जाओ। जब तुम सिर हिलाते हो, तो मैं जानता हूं तुम्हारे संप्रदाय से मेल खा रही है बात; तुम्हारे शास्त्र के अनुकूल पड़ रही है; तुम्हारे सिद्धात से विरोध नहीं है।


जब मैं देखता हूं कि तुम्हारा सिर इनकार में हिल रहा है, तो मैं जानता हूं कि तुम्हारे पक्ष में नहीं पड़ रही है बात। तुम अब तक जैसा मानते रहे हो, उससे भिन्न है, या विपरीत है।


और जब मैं देखता हूं कि तुम दिग्विमूढ़ बैठे हो, तब तुम तय नहीं कर पा रहे कि पक्ष में होना कि विपक्ष में होना। बात तुम्हारी समझ में ही नहीं पड़ रही कि तुम निर्णय ले सको।


इन तीनों से बचना। इस बात की फिक्र मत करना सुनते समय कि तुम्हारे पक्ष में है या नहीं। क्योंकि अगर तुम्हारा पक्ष सत्य है, तब तो सुनने की जरूरत ही नहीं। तब तो मेरे पास आने का कोई प्रयोजन ही नहीं। तुम जानते ही हो। तुमने पा ही लिया है। यात्रा पूरी हो गई।


अगर तुमने नहीं पाया है, अगर अभी भी यात्रा जारी है और खोज जारी है, और तुम्हें लगता है अभाव, खटकता है अभाव, खोजना है, पाना है, पहुंचना है। तो फिर तुमने जो अब तक सोचा है, उसे किनारे रख देना; उसको बीच में मत लाना। अन्यथा वह तुम्हें सुनने ही न देगा। और तुम जो सुनोगे, उसको भी रंग से भर देगा, अपने ही रंग से भर देगा। तुम वही सुन लोगे, जो तुम सुनने आए थे। और तुम उनउन बातों को सुनने से चूक जाओगे, जो तुमसे मेल न खाती थीं। तुम्हारा मन चुनाव कर लेगा।


तुम मन को सुनने मत देना। मन को कहना, तू चुप। पहले मैं सुन लूं। अगर सुनने से हो गया, ठीक। अगर न हुआ, तो फिर तेरा उपयोग करेंगे, फिर मनन करेंगे। लेकिन पहले मुझे परिपूर्ण भाव से सुन लेने दे।


और मजे की बात यह है, जिन्होंने परिपूर्ण भाव से सुन लिया, उन्हें मनन करने की जरूरत नहीं रह जाती।


मनन की जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि सुनते समय भी तुम सोचे जा रहे हो। एक धुआं तुम्हें घेरे हुए है विचारों का। बचपन से तुमने हर चीज के संबंध में धारणा बना ली है। वह धारणा तुम्हें पकड़े हुए है।

गीता दर्शन 

ओशो

No comments:

Post a Comment