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Sunday, December 11, 2016

आंधियो से डरना मत



जिसने जीवन को पूरा मौका दिया है, सब रंगों में, सब रूपों में। डरे डरे मत जीना, तूफानों से छिपकर मत जीना। आंधिया आएं तो घरों में मत छिप जाना। आंधी भी अकारण नहीं आती, कुछ धूल धवांस झाडू जाती है। आंधी भी अकारण नहीं आती, कोई चुनौती जगा जाती है; कोई भीतर सोए हुए तारों को छेड़ जाती है। एक बात तो सदा ही स्मरण रखना कि इस संसार में अकारण कुछ भी नहीं होता: तुम चाहे पहचानो, चाहे न पहचानो। देर अबेर कभी न कभी जागोगे तो समझोगे। जो अंगुलियां तुम्हें शत्रु जैसी मालूम पड़े, एक दिन तुम पाओगे कि उन्होंने भी तुम्हारे हृदय की वीणा को जगाया।

अंगुलियों की कृपा ही झंकार है
अन्यथा नीरव निरर्थक बीन है

वीणा अगर डर जाए और छिप जाए, अंगुलियों को छेड़ने न दे स्वयं के तारों को, तो वीणा मृत रह जाएगी। संगीत सोया रह जाएगा।

जैसे वृक्ष बीज में दबा रह गया। जैसे आवाज कंठ में अटकी रह गई। जैसे प्रेम हृदय में बंद रह गया। जैसे सुगंध खिलने को थी, खिल न पाई। कली खिली ही न, सुगंध बिखरी ही न।

एक ही दुख है संसार में एक ही मात्र और वह दुख है कि तुम जो होने को हो, वह न हो पाओ। जो तुम्हारी नियति थी, वह पूरी न हो। कहीं तुम चूक जाओ और तुम्हारी वीणा पर स्वर न गूंजे। हिम्मत रखनी होगी। आंधियों की अंगुलियां आएं, तो उन्हें भी छेड़ने देना अपनी बीन को। 

'जिसने मार्ग पूरा कर लिया है।

भगोड़ा कभी मार्ग पूरा नहीं करता। भगोड़ा तो पूरा होने के पहले भाग खड़ा होता है। भगोड़ा तो मार्ग की लंबाई से ही डर गया है; वह मुफ्त मंजिल चाहता है। पकना तो चाहता है, लेकिन पकने की पीड़ा नहीं झेलना चाहता। उस स्त्री जैसा है, जो मां तो बनना चाहती है, लेकिन गर्भ की पीड़ा नहीं झेलना चाहती।

नौ महीने ढोना होगा उस पीड़ा को। और अगर मां बनना है, अगर मां बनने की उस अपूर्व अनुभूति को पाना है कि मुझ से भी जीवन का जन्म हुआ; अकारथ नहीं हूं बांझ नहीं हूं; मुझ से भी जीवन की गंगा बही; मैं भी गंगोत्री बनी अगर उस अपूर्व अनुभव को, उस अपूर्व धन्यभाग को लाना है, तो नौ महीने की पीड़ा झेलनी पड़ेगी। प्रसव की पीड़ा झेलनी पड़ेगी। आंख से आंसू बहेंगे, चीत्कार निकलेगा। लेकिन उन्हीं चीत्कारों और आंसुओ के पीछे मां का अपूर्व रूप प्रगट होता है।

स्त्री सिर्फ स्त्री है, जब तक मां न बन जाए। स्त्री तब तक सिर्फ साधारण स्त्री है, जब तक मां न बन जाए। मां बनते ही वीणा को छेड़ दिया गया। मां बने बिना कोई भी स्त्री ठीक अर्थों में सुंदर नहीं हो पाती। स्रष्टा बने बिना सौंदर्य कहां? किसी को जन्म दिए बिना अहोभाग्य कहा?

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 


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