एक फकीर अपने एक मित्र के घर से विदा हो रहा
था। अंधेरी रात थी और उसके मित्र ने कहा: रात अंधेरी है और उचित होगा कि मैं एक दीया
जला दूं और तुम दीया ले जाओ। वह फकीर हंसने लगा और उसने कहा कि तुम जानते हुए भी ऐसी
बात कहते हो। लेकिन उसका मित्र नहीं समझ पाया कि वह क्या कह रहा है। वह दीया जला कर
ले आया। वह उसे दीया देने लगा। फिर भी उसके मित्र ने कहा कि नहीं तुम जानते कि तुम
क्या कर रहे हो। उसके मित्र ने यह बात सुनी दुबारा, अचानक उसे खयाल आया, उसने हाथ में दीया लिया हुआ था, उसे फूंक कर बुझा
दिया और वह हंसने लगा और दीया फेंक दिया। साथी फकीर ने कहा कि शायद तुम्हें खयाल आ
गया। दूसरों के दीये किस भांति हमारे काम आ सकते हैं? दूसरों
की ज्योति किस भांति हमारे अंधकार को मिटा सकती है? अंधकार
मेरा है और ज्योति आपकी है, उन दोनों का कहीं कोई मिलन ही
नहीं होगा।
अज्ञान मेरा है और ज्ञान आपका है, उन दोनों का कहीं भी कोई
मिलन नहीं होगा। घृणा मेरी है और प्रेम आपका है, तो मेरी घृणा
को आपका प्रेम नहीं काट सकेगा।
बाहर की दुनिया में दूसरे के दीये को लेकर भी
हम यात्रा कर सकते हैं, भीतर की दुनिया में अपना ही दीया चाहिए, किसी का
दीया काम नहीं कर सकता है। लेकिन हमें आज तक यही बताया गया। मुझे भी बचपन में यही बताया
गया था कि मैं स्वीकार कर लूं जो कहा जा रहा है। लेकिन यह बात मेरी कभी समझ में नहीं
आ सकी, यह मैंने कहा कि ठीक, क्राइस्ट
ठीक कहते होंगे, बुद्ध ठीक कहते होंगे, वे सत्य ही कहते होंगे, लेकिन वे जो कहते हैं वह
उनका ज्ञान है, उनका ज्ञान मेरा ज्ञान कैसे हो सकता है?
मैं मैं हूं, वे वे हैं। उनका ज्ञान उनका
ज्ञान है, उनका ज्ञान मेरा ज्ञान कैसे हो सकता है?
मैंने पूछा, बुद्ध को, बुद्ध के
पहले भी ज्ञानी हो चुके थे, बुद्ध ने उनके ज्ञान को नहीं मान
लिया। बुद्ध पागल थे? महावीर के पहले ज्ञानी हो चुके थे। महावीर
ने खुद खोज क्यों की, उनके ज्ञान को मान लेते? हम ज्यादा समझदार हैं महावीर बड़े नासमझ थे। क्राइस्ट के पहले दुनिया में
जागे हुए पुरुष नहीं हुए थे? क्राइस्ट फिजूल ही परेशान हुए
और श्रम उठाया, उनकी बात मान लेते और समाप्त हो जाती बात।
लेकिन आज तक दुनिया में जिन्होंने भी सत्य को खोजा है उन्हें स्वयं ही खोजना पड़ा है,
किसी के उधार सत्य को मान कर कभी भी नहीं चल सका है। और हम सारे लोग
उधार सत्यों को मान कर बैठे हैं। यह बात मेरी कभी समझ में नहीं आ सकी कि दूसरे का ज्ञान
मेरा ज्ञान कैसे हो सकता है? दूसरे की आत्मा मेरी आत्मा कैसे
बन सकती है? दूसरे का जानना मेरा जानना कैसे हो सकता है?
एक कवि के पास हम खड़े हों एक सुबह, फूल खिले हों, आकाश में सूरज निकला हो, पक्षी गीत गा रहे हों,
और वह कवि कहे कि देखते हो, सौंदर्य देखते
हो, हम भी देखेंगे, हमें भी दिखाई
पड़ेंगे कि फूल खिले हैं, ठीक है, पक्षी गीत गा रहे हैं, ठीक है, लेकिन सौंदर्य, कहां है सौंदर्य? वह जो सौंदर्य उसे दिखाई पड़ रहा है, वह हमें दिखाई
नहीं पड़ रहा कहीं भी। वह पागल हुआ जा रहा है, वह नाचने को
तैयार हो गया है, वह नाचने लगा है, उसकी आंखों से आंसू बहे चले जा रहे हैं। और हम सोच रहे हैं यह आदमी पागल
मालूम होता है। ऐसा कुछ क्या है, ठीक है, पक्षी शोरगुल कर रहे हैं; सूरज निकला है,
सो रोज निकलता है; फूल खिले हैं,
सो खिले हैं। इसमें बात क्या है? वह जो कवि
देख रहा है, वह हम कैसे देख सकते हैं? उसे देखने के लिए हमारा भी कवि हो जाना जरूरी है, अन्यथा देखने का कोई उपाय नहीं।
धर्म और आनंद
ओशो
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