मेलाराम असरानी,
मैं हूं ही नहीं--कैसा मसीहा, कैसा अवतार, कैसा तीर्थंकर, कैसा पैगंबर! और हूं ही नहीं
तो क्या समझूं? समझे कौन? समझे
किसको? मैं तो गया। मैं तो बहुत समय हुआ, जा चुका।
यह बूंद तो कब की सागर में खो गयी। मगर बूंद
जब सागर में खोती है तो सागर हो जाती है। इसलिए तो कबीर ने कहा कि यह देखो मजा, नदी सागर को पी गयी।
कबीर की ये उलटबांसियां कि नदी सागर को पी गयी--सूचक हैं, बड़ी सूचक हैं।
अब मैं नहीं हूं। अब तो जो है वही है। अब
कहां मैं, कहां
तू? यह मैं मैं तू तू गयी। अगर मैं कहूं मैं मसीहा हूं तो
भूल होगी। अगर मैं कहूं मैं तीर्थंकर हूं तो भूल होगी। अगर मैं कहूं मैं अवतार हूं
तो भूल होगी। मैं नहीं हूं , अब तो भगवत्ता है। वही
भगवत्ता जो तुम्हारे भीतर भी है। मगर तुम मिटने की तैयारी नहीं जुटा पाते।
मेलाराम असरानी, तुम तो मेला बने हो। और
मेले में तो झमेला होने वाला है। तुम तो भीड़ हो। मैं शून्य हूं, तुम भीड़ हो। तुम तो क्या क्या नहीं हो! तुम्हारे भीतर एक भी नहीं है,
अनेक तन हैं । एक दौड़ नहीं, अनेक दौड़ें
हैं। और सब दौड़ें एक-दूसरे के विपरीत हैं, इसलिए हंगामा
मचा हुआ है। इसलिए भीतर सतत संघर्ष है, द्वंद्व है,
उपद्रव है।
और तुम यहां मेरे पास भी आते हो, तो तुम भी क्या करो,
तुम्हारे उसी उपद्रव में से ऐसे प्रश्न उठते हैं कि क्या आप
मसीहा हैं! क्या विचार है, सूली लगानी है मुझे? क्योंकि बिना सूली लगाए कहीं कोई मसीहा हुआ है? जीसस को कोई मानता मसीहा जब तक सूली न लगती? अगर
तुम्हारे दिल सूली लगाने के हों तो चलो मैं मसीहा हूं। तुम अपनी मर्जी पूरी कर लो।
या मेरे कानों में खीले ठोंकने हैं या मेरे ऊपर पागल कुत्ते छोड़ने हैं? क्योंकि जब तक खीले न ठुकें और पागल कुत्ते न छोड़े जाएं, तब तक कोई तीर्थंकर नहीं होता। जब तक चट्टानें न गिरायी जाएं, विक्षिप्त हाथियों को न छोड़ा जाए, भोजन में
जहर न दिया जाए, तब तक कोई बुद्ध नहीं होता। क्या
तुम्हारे इरादे हैं?
मैं किन्हीं कोटियों में बंटने को राजी नहीं
हूं। मैं किसी कोटि में खड़े होने को राजी नहीं हूं।
बुद्ध के जीवन में एक प्यारा
उल्लेख है, शायद
तुम्हारे काम पड़ जाए। एक महाज्योतिषी काशी से लौट रहा है--अपने ज्योतिष का अध्ययन
पूरा करके। उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। उसकी भविष्यवाणियां सच होने लगीं।
उसकी बात पत्थर की लकीर बनने लगी। वह अपने गांव वापिस आ रहा है। राह में एक छोटी
सी नदी पड़ती है--निरंजना। बुद्ध-गया के पास बहती है। उसी निरंजना के तट पर बुद्ध
परम ज्योति में लीन हुए। नदी का नाम भी बड़ा प्यारा है--निरंजना! निरंजन तो
परमात्मा का नाम है। बुद्ध ने भी ठीक जगह चुनी।
निरंजना के तट पर बुद्ध एक वृक्ष के नीचे
ध्यान कर रहे हैं। और वह काशी से आया हुआ पंडित, भरी दुपहरी है, जब
नदी के तट पर पहुंचा तो देख कर हैरान हुआ--गीली रेत में किसी के पैरों के चिंह बने
हैं। वह तो बहुत चौंका,क्योंकि उसके ज्योतिष के अनुसार इन
पैरों के चिन्हों में जो लकीरें बनी हैं, वे तो केवल
चक्रवर्ती सम्राट की हो सकती हैं। चक्रवर्ती सम्राट का अर्थ होता है--जो
छहों महाद्वीप, सारी पृथ्वी का सम्राट हो। चक्रवर्ती
सम्राट इस भरी दोपहरी में, इस गरीब नदी के किनारे,
नंगे पैर चलने को आएगा! और चक्रवर्ती सम्राट कोई था भी नहीं उन
दिनों। भारत में तो असंभव। भारत में बुद्ध के समय दो हजार राज्य थे, कहां चक्रवर्ती सम्राट! एक-एक जिला, एक-एक
राजा।
भारत कभी राष्ट्र रहा ही नहीं। इसकी बुद्धि
में टुकड़ों में बंटने की आदत है,
वह अभी भी नहीं छूटी। इसे इकट्ठा होना नहीं आता। हर चीज टूट जाती
है यहां। भारत दो हजार खंडों में बंटा हुआ था, कौन
चक्रवर्ती सम्राट था!
मगर ये पैर के चिन्ह बहुत स्पष्ट थे। ज्योतिष
को बहुत चिंता हुई कि क्या मेरा शास्त्र गलत है। उसने पैरों के चिन्हों का पीछा
किया। जिस तरफ चिन्ह जाते मालूम होते थे पैर के, उसी तरफ चल पड़ा कि इस आदमी को देखना जरूरी
है। चलते-चलते पहुंचा उस वृक्ष के नीचे जहां बुद्ध बैठे थे, तब और मुश्किल में पड़ गया। बुद्ध के चेहरे को देख कर तो लगे कि है तो
चेहरा चक्रवर्ती सम्राट का ही। व्यक्तित्व में वही आभा है जो चक्रवर्ती सम्राट की
होनी चाहिए--वही मंडल है, वही वर्तुल है प्रकाश का वही
सुगंध है! वही ऐश्वर्य! मगर आदमी भिखमंगा मालूम होता है। पास में भिक्षापात्र रखा
हुआ है, बिछाने को चटाई भी नहीं है। झाड़ के नीचे चट्टान
पर बैठा हुआ है। वह पैरों पर गिर पड़ा ज्यातिषी उसके अपने शास्त्र जो बड़े बहुमूल्य
थे वहीं रख दिये और बुद्ध से कहा कि मेरी जिज्ञासा को शांत कर दें, मैं बहुत अड़चन में पड़ गया हूं। बारह वर्ष की मेरी चेष्टा और श्रम पानी
में मिला दिया आपने। ये पैरों के चिंह आपके हैं? जरा आपके
पैर देख लूं।
बुद्ध ने पैर आगे बढ़ा दिये, उसने पैर गौर से देखे और
कहा कि निश्चित ही आपको तो चक्रवर्ती सम्राट होना चाहिये। आप भिखारी कैसे? यह भिक्षापात्र कैसा? इस गरीब नदी के तट पर,
गर्मी के दिन हैं, निरंजना बिलकुल सूख
गयी है, जरा-सी पानी की धार है, आप
यहां क्या कर रहे हैं चक्रवर्ती हो कर?
बुद्ध ने कहा, " मैं कैसा चक्रवर्ती! इस भिक्षापात्र
के सिवाय मेरे पास कुछ भी नहीं। और यह भी मेरा नहीं है। यहां कुछ भी मेरा नहीं है।
अरे यह मेरी देह भी मेरी नहीं है। यह मेरा मन भी मेरा नहीं है। मैं भी मेरा नहीं
हूं।'
तो उस ज्योतिषी ने पूछा, "फिर एक ही बात हो
सकती है कि आप कोई देवता हैं जो आकाश से उतरे, पृथ्वी का
निरीक्षण करने या किसी और प्रयोजन से?'
बुद्ध ने कहा कि नहीं-नहीं, मैं कोई देवता भी नहीं
हूं।
"तो क्या आप गंधर्व हैं?' गंधर्व हैं देवताओं
के संगीतज्ञ। वह भी देवताओं की एक कोटि है। "क्या आप गंधर्व हैं?'
बुद्ध ने कहा कि नहीं, मैं कोई गंधर्व भी नहीं।
ज्योतिष मुश्किल में पड़ता जा रहा है। क्रुद्ध भी होता जा रहा है कि यह आदमी कैसा
है, हर बात में इनकार कर रहा है कि मैं यह भी नहीं। तो
कहा, कम से कम आप आदमी तो हैं?
बुद्ध ने कहा कि नहीं-नहीं, मैं आदमी भी नहीं। तब तो
ज्योतिषी और गुस्से में आ गया। उसका गुस्सा स्वाभाविक , बारह
साल का श्रम व्यर्थ गया, शास्त्र गलत सिद्ध हुए और यह एक
आदमी है जो जवाब दे रहा है यूं कि इस पर कहीं से कोई पकड़ ही नहीं बैठती। इसको किस
कोटि में रखें?
तो कहा, "पशु हैं क्या?'
बुद्ध ने कहा कि नहीं। "पत्थर हैं क्या?' बुद्ध ने कहा, नहीं। तो उसने कहा कि आप ही कहें, कौन हैं?
बुद्ध ने कहा, "मैं सिर्फ जागरण
हूं। मैं सिर्फ होश हूं, बोध हूं। मैं नहीं हूं, बोध मात्र है।'
इसलिए मैं यह भी नहीं कह सकता कि मैं बुद्ध
हूं--सिर्फ बोध है। और मैं मिटा तब बोध हुआ। अगर मैं रहे तो बोध नहीं।
मेलाराम असरानी, मैं न मसीहा हूं,
न तीर्थंकर , न पैगंबर न अवतार।
मैं नहीं हूं। एक शून्य है। इस शून्य में तुम जो चाहो देख लो, तुम जो चाहो प्रक्षेपित कर लो। इसलिए किसी को भगवान दिख सकता है,
किसी को शैतान दिख सकता है। यह शून्य तो दर्पण मात्र है, तुम्हारा चेहरा ही दिखाई पड़ेगा।
अब मेलाराम असरानी देखेंगे तो इनको मेला
दिखाई पड़ेगा--कुंभ मेला भरा हुआ! क्या नाम चुना है--मेलाराम! अरे राम ही काफी थे, राम तक को मेला बना
दिया! राम को ही बचा लो, मेले को जाने दो। और राम तभी
बचता है जब तुम मिटते हो। मेला मिटा यानी तुम मिटे। मेला अहंकार की भीड़-भाड?
है, उपद्रव है, शोरगुल है। मेला गया कि राम बचा। और राम जहां है वहां कोई मैं-भाव नहीं
है। मेरा अर्थ दशरथ पुत्र राम से नहीं है,ध्यान रहे। राम
से मेरा अर्थ भगवत्ता से है, भगवान से है। तुम्हारे भीतर
भी भगवान पड़ा है, मगर उपेक्षित हीरे की तरह और तुम कचरे
में भटके हुए हो।
मुझसे क्या पूछते हो मैं कौन हूं! मुझे तुम
तभी पहचान लोगे, उससे पहले कोई उपाय नहीं है। जागे हुए को पहचानना हो तो नींद से जाग
जाओ। मगर तुम नींद में ही पूछ रहे हो--"क्या आप मसीहा हैं?' यह तुम नींद में बड़बड़ा रहे हो। ये तुम्हारे स्वप्न की बातें हैं। और
अगर मैं कह दूं हां मैं मसीहा हूं , तो स्वप्न वाले दो
काम कर सकते हैं--कुछ हैं, जो मसीहा को मिटाने में लग
जाएंगे, सूली बनाने में लग जाएंगे; और कुछ हैं जो मसीहा की पूजा करने लग जाएंगे। दोनों ही मसीहा को मिटाने
में लगे हैं--एक हिंसात्मक ढंग से, एक अहिंसात्मक ढंग से।
सूली चढ़ाने वाला भी मिटा रहा है, पूजा करने वाला भी मिटा
रहा है। पूजा करने वाला कह रहा है कि आप बड़े पूज्य हो,बस
कृपा करो, दूर-दूर रहो; दो फूल
हम चढ़ा देते हैं, इससे ज्यादा हमसे कुछ और न हो सकेगा।
हमें माफ करो, हम पर कृपा करो। ये दो फूल ले लो और हमें
छुटकारा दो।
सूली चढ़ाने वाला भी यही कह रहा है। जरा उसका
ढंग हिंसात्मक है। वह कह रहा है कि हम नहीं चाहते तुम रहो, क्योंकि तुम्हारी
मौजूदगी हमें अड़चन देती है। हम तुम्हारी मौजूदगी को मिटा देना चाहते हैं। वह भी
मिटा रहा है, पूजा करने वाला भी मिटा रहा है। पूजा करने
वाला कह रहा है कि तुम मसीहा हो, भगवान हो, तीर्थंकर हो, पैगंबर हो, अवतार हो। हम मनुष्य ठहरे। हम हैं मेलाराम, तुम
हो राम, क्या लेना-देना? मगर अब
मिल गये हो राह पर तो जयराम जी! ये दो फूल ले लो और हमें जाने दो!
दोनों अपने-अपने ढंग से इनकार करने की कोशिश
कर रहे हैं। समझने की चेष्टा करो,
जानने की चेष्टा करो। तभी तुम पहचान पाओगे कि शून्य होना भी एक
ढंग है। वही तो अथर्ववेद की ऋचा है--
पृष्ठात्पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहम्
अन्तरिक्षादिद् विमारुहम्, दिवोनाकस्य
पृष्ठात्र्ऽस्वज्योतिरगाहम्
चले चलो, उठ चलो--शरीर से, पार्थिव
लोक से अंतरिक्ष लोक; अंतरिक्ष लोक से ज्योतिषमान लोक,से परम ज्योतिपुंज में लीन हो जाओ। शून्य हो जाओगे तो महाशून्य
तुम्हारा है। मिटोगे तो सब कुछ तुम्हारा है।
ज्यूँ मछली बिन नीर
ओशो
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