एक शराबी रात देर से घर लौटा। रास्ते में
बड़ी झंझटें आईं। दीवालों से टकरा गया;
चलते लोगों से टकरा गया; राह पर खड़े
भैंस-बैलों से टकरा गया। बार-बार उसने अपनी लालटेन उठा कर देखी; उसने कहा: बात क्या है! साथ में लालटेन लिए है। फिर एक नाली में गिर
पड़ा--अपनी लालटेन सहित; कोई उसे उठाकर उसके घर पहुंचा
गया।
दूसरे दिन सुबह बैठा है: कुछ-कुछ
धुंधली-धुंधली याद आ रही है रात की। सिर में भी चोट है; पैर में भी चोट है। वह
सोच रहा है कि मामला क्या हुआ! लालटेन मेरे हाथ में थी, मैं
इतना टकराया क्या? और तभी शराबघर का मालिक आया और उसने
कहा कि भई, यह तुम्हारा लालटेन लो। तुम कल शराबघर में छोड़
आए थे। तुम मेरा तोते का पिंजड़ा उठा लाए। मेरा तोते का पिंजड़ा कहां है?
अब शराबी आदमी; बेहोशी में हो गया।
लालटेन जैसा ही जंचा होगा--तोते का पिंजड़ा। पकड़ने में भी लालटेन जैसा मालूम पड़ा
होगा। चल पड़ा!
बेहोशी में तुम जो पकड़ लेते हो, उससे बनती है परंपरा।
होश में तुम जो जानते हो, वह है धर्म।
धर्म की कोई परंपरा नहीं होती। परंपरा में
कोई धर्म नहीं होता। इसलिए हिंदू को मैं धार्मिक नहीं कहता? मुसलमान को धार्मिक नहीं
कहता। ईसाई को, जैन को धार्मिक नहीं कहता। धर्म का इनसे
क्या संबंध! ये तो तोते के पिंजड़े हैं।
महावीर के हाथ में लालटेन थी; जैन के हाथ में तोते का
पिंजड़ा है। कृष्ण के हाथ में लालटेन थी; हिंदू के हाथ में
तोते का पिंजड़ा है। अब तुम तोते के पिंजड़े की कितनी ही पूजा करो; लाख नाचो गीत गाओ; तोते का पिंजड़ा, तोते का पिंजड़ा है; उससे प्रकाश नहीं मिल
सकता। उसमें प्रकाश नहीं है।
कन थोड़े कांकर घने
ओशो
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