दो दुनियाएं हैं। जहां दो व्यक्ति मिलते हैं, वहां दो संसार मिलते हैं।
और जब दो संसार करीब आते हैं, तो उपद्रव होता है; क्योंकि दोनों भिन्न हैं।
ऐसा हुआ, मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर बैठा था। उसका छोटा बच्चा रमजान
उसका नाम है, घर के लोग उसे रमजू कहते हैं वह इतिहास की किताब पढ़ रहा था।
अचानक उसने आंख उठाई और अपने पिता से कहा, “पापा, युद्धों का वर्णन है
इतिहास में…युद्ध शुरू कैसे होते हैं?’
पिता ने कहा, “समझो कि पाकिस्तान हिंदुस्तान पर हमला कर दे। मान लो……।’
इतना बोलना था कि चौके से पत्नी ने कहा, “यह बात गलत है। पाकिस्तान कभी
हिंदुस्तान पर हमला नहीं कर सकता और न कभी पाकिस्तान ने हिंदुस्तान पर हमला
करना चाहा है। पाकिस्तान तो एक शांत इस्लामी देश है। तुम बात गलत कह रहे
हो।’
मुल्ला थोड़ा चौंका। उसने कहा कि मैं कह रहा हूं, सिर्फ समझ लो। सपोज…।
मैं कोई यह नहीं कह रहा हूं कि युद्ध हो रहा है और पाकिस्तान ने हमला कर
दिया है; मैं तो सिर्फ समझाने के लिए कह रहा हूं कि मान लो…।
पत्नी ने कहा, “जो बात हो ही नहीं सकती, उसे मानो क्यों? तुम गलत
राजनीति बच्चे के मन में डाल रहे हो। तुम पहले से ही पाकिस्तान विरोधी हो,
और इस्लाम से ही तुम्हारा मन तालमेल नहीं खाता। तुम ठीक मुसलमान नहीं हो।
और तुम लड़के के मन में राजनीति डाल रहे हो, और गलत राजनीति डाल रहे हो। यह
मैं न होने दूंगी।’
वह रोटी बना रही थी, अपना बेलन लिए बाहर निकल आई। उसे बेलन लिए देखकर
मुल्ला ने अपना डंडा उठा लिया। उस छोटे बच्चे ने कहा, “पापा रुको, मैं समझ
गया कि युद्ध कैसे शुरू करते हैं। अब कुछ और समझाने की जरूरत नहीं है।’
जहां दो व्यक्ति हैं, जैसे ही उनका करीब आना शुरू हुआ कि युद्ध की
संभावना शुरू हो गई। दो संसार हैं; उनके अलग अलग सोचने के ढंग हैं; अलग अलग
देखने के ढंग हैं; अलग उनकी धारणाएं हैं; अलग परिवेश में वे पले हैं;
अलग अलग लोगों ने उन्हें निर्मित किया है; अलग अलग उनके धर्म हैं, अलग अलग
राजनीति है; अलग अलग मन हैं सारसंक्षिप्त। और जहां अलग अलग मन हैं, वहां
प्रेम संभव नहीं वहां कलह ही संभव है।
इसलिए तो संसार में इतनी कठिनाई है प्रेमी खोजने
में। मित्र खोजना असंभव मालूम होता है। मित्र में भी छिपे हुए शत्रु मिलते
हैं। और प्रेमी में भी कलह की ही शुरूआत होती है।
दो संसार कभी भी शांति से नहीं रह सकते।
उसका कारण?
एक संसार भी अपने भीतर कभी शांति से नहीं रह सकता; दो मिलकर अशांति दुगुनी हो जाती है।
तुम अकेले भी कहां शांत हो? तुम्हारा मन वहां भी अशांति पैदा किए हुए है। फिर जब दोनों मिलते हैं तो अशांति दुगुनी हो जाती है।
जितनी ज्यादा भीड़ होती जाती है उतनी अशांति सघन होती जाती है, क्योंकि उतने ही कलह में पड़ जाते हैं।
जिस दिन तुम इस सत्य को देख पाओगे कि तुम्हारा संसार तुम्हारे भीतर है,
और तुम उसी संसार के आधार पर बाहर की खूंटियों पर संसार निर्मित कर रहे हो,
इसलिए सवाल बाहर के संसार को छोड़कर भाग जाने का नहीं है; भीतर के संसार को
छोड़ देने का है तब तुम कहीं भी रहो, तुम जहां भी होओगे, तुम वहीं संन्यस्थ
हो। तुम कैसे भी रहो महल में या झोपड़ी में, बाजार में या आश्रम में, कोई
फर्क न पड़ेगा। तुम्हारे भीतर से जो भ्रांति का सूत्र था, वह हट गया।
सुनो भई साधो
ओशो
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