कुछ लोग प्रेम के माध्यम से पाते हैं परमात्मा को, क्योंकि प्रेम एक को
उदघाटित कर देता। क्योंकि प्रेम का अर्थ ही है, दो को एक बना लेना। भक्त जब
भगवान के साथ एक हो जाता, तब पकड़ ली कील, तब अब दो पाट उसे नहीं पीस सकते।
या, दूसरी प्रक्रिया है, ध्यान। छोड़ दिया मन, बन गए साक्षी। जब साक्षी बन
जाते हैं, धीरे धीरे, धीरे धीरे मन शांत होता जाता है, शांत होता जाता है,
एक दिन खो जाता, शून्य हो जाता। जब मन शून्य हो जाता है और साक्षी बचता
है, तो फिर बचा एक।
भक्त भगवान के साथ अपने प्रेम को जोड़कर एक हो जाता, ध्यानी संसार के साथ
अपने को तोड़कर एक रह जाता। मगर दोनों प्रक्रियाएं एक होने की प्रक्रियाएं
हैं। बुद्ध का मार्ग ध्यान का मार्ग है, साक्षी का मार्ग है, वैसा ही जैसा
अष्टावक्र का। सहजो, दया, मीरा, उनका मार्ग भक्ति का मार्ग है। परमात्मा को
अपने से जोड़ लेना है, ऐसा जोड़ लेना है कि जरा भी बीच में कुछ फासला न रह
जाए। यह पता ही न चले कौन भक्त, कौन भगवान, उस घड़ी में दो खो गए। या,
साक्षी का भाव निर्मित ही जाए, उस घड़ी में भी दो खो गए।
किसी तरह दो खो जाएं, किसी भी तरह, किसी भी व्यवस्था से तुम चाक की कील
पर आ जाओ। उस कील में शाश्वत शांति है, शाश्वत सुख है। उस कील पर पहुंच
जाने में तुम अपने केंद्र पर ही नहीं पहुंचे, अस्तित्व के केंद्र पर पहुंच
गए। फिर कोई दुख नहीं। उसे कुछ लोग मोक्ष कहते हैं, कुछ लोग निर्वाण कहते
हैं, शब्दों का ही भेद है। लेकिन जिसने उस शरण को पा लिया, एक की शरण को,
उसके जीवन से सारे कष्ट ऐसे हो तिरोहित हो जाते हैं जैसे सुबह सूरज के ऊगने
पर ओस के कण विदा हो जाते हैं। या जैसे दीए के जलने पर अंधेरा खो जाता है।
जब तक तुम इस एक को न पा लो, तब तक बेचैनी जाएगी नहीं। जब तक तुम इस एक
को न पा लो, तब तक तुम तृप्त होना भी नहीं। तब तक इसकी खोज जारी रखना। तब
तक जो भी दाव पर लगाना पड़े, लगाना, क्योंकि यही पाने योग्य है। और सब पाकर
भी कुछ पाया नहीं जाता। और इस एक को जो पा लेता है, वह सब पा लेता है।
इक
साधे सब सधे, सब साधे सब जाए।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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