मछली ने कभी सागर छोड़ा है? वह सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही लीन
होती है। परमात्मा में हम जी रहे हैं, उसी में श्वास लेते, उसी में
उठते बैठते, चलते, भटकते, पाते सब उसी में घट रहा है। खोते भी हैं, तो भी
उसी के भीतर हैं; पाते हैं तो भी उसी के भीतर हैं।
उससे बाहर होने का कोई
उपाय नहीं है। मछली तो कभी कभी छलांग लगाकर तट पर भी आ सकती है और तड़फ सकती
है, लेकिन परमात्मा के बाहर होने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि उसके बाहर
कोई तट ही नहीं है। वह तटहीन सागर है। उससे बाहर जाने की कोई जगह नहीं है,
क्योंकि उसके बाहर कुछ नहीं है; वही सब कुछ है।
सुनो भई साधो
ओशो
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