भद्रा पूछ रही है, वह कौन सी अज्ञात शक्ति है, जो हमें आपकी ओर खींचती
है? वह वही अज्ञात शक्ति है, जो तुम्हारे भीतर है और मेरे भीतर है। न मैं
उसका नाम जानता हूं, न तुम उसका नाम जानती हो, लेकिन मैं इतना जानता हूं कि
वह अज्ञात है और बेनाम है। और तुम्हें अभी भी यह भ्रम है कि शायद किसी दिन
तुम उसे पहचान लोगी, उसके नाम को जान लोगी। जिस दिन यह भ्रम टूट जाएगा, उस
दिन तुम भी एक अपूर्व आकर्षण और चुंबक का केंद्र बन जाओगे। तुम्हारे भीतर
भी वह कशिश होगी। तुम्हारे शब्दों में भी वही अधिकार होगा, क्योंकि तब तुम
नहीं बोलते, तक तुम्हारा गीत तुम्हारा गीत नहीं है। तब तो तुम सिर्फ बांस
की पोली पोंगरी हो। ओंठ किसी और के हैं और गीत किसी और का है। तुम्हारा
धन्यभाग इतना कि तुम उस गीत को अपने भीतर से प्रवाहित होने देते हो। और यह
प्रवाह इस जगत का सबसे बड़ा आनंद है। ज्ञान की खोज मत करो, आनंद की खोज करो।
आनंद है जो तुम्हें खींचता है मेरी ओर। मेरा मिट जाना है जो खींचता है
तुम्हें मेरी ओर। और मिट कर ही तुम आनंद को पा सकते हो।
हम सब नामों से चिपके हैं–झूठे नाम। पैदा हुए थे। तो साथ में न कोई
आइडेंटिटी कार्ड था, न कोई नाम की छोटी सी स्लिप थी। अज्ञात तुम आए थे। नाम
तो हमने चिपका दिए हैं। लेबल हैं जो हम पर लगा दिए हैं। और जिस दिन तुम
जाओगे, उस दिन उन लेबलों को हम अलग कर लेंगे। क्योंकि फिर तुम अज्ञात में
प्रवेश कर रहे हो। लेकिन इन दो अज्ञातों के बीच में भी जो था, वह भी अज्ञात
था। नाम, प्रतिष्ठा, सम्मान, उपाधियां, वे सब चिपकायी हुई बातें थीं, जो
सब उखड़ जाएगी।
मैं यह कहना चाहता हूं कि जगत को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है।
ज्ञात, द नोन; अज्ञात, द अननोन; और अज्ञेय, द अननोएबल। जो आज ज्ञात है, कल
अज्ञात था। जो आज अज्ञात है, शायद कल ज्ञात हो जाए। विज्ञान केवल दो
कोटियां मानता है: ज्ञात की और अज्ञात की। विज्ञान सोचता है कि एक दिन
आएगा, एक घड़ी आएगी–उनके हिसाब से शुभ की घड़ी, मेरे हिसाब से दुर्भाग्य का
क्षण–जिस दिन सब अज्ञात ज्ञात में बदल जाएगी। उस दिन जीवन अर्थहीन होगा। उस
दिन जीवन के पास न कोई नयी चुनौती होगी, न खोज के लिए कोई नया आयाम होगा।
नहीं, यह घटना कभी नहीं घटेगी। क्योंकि एक और कोटि है अज्ञेय की: जो सदा
अज्ञेय है। जो पहले भी अज्ञेय था, अब भी अज्ञेय है और कल भी अज्ञेय रहेगा।
तुम वही हो: अननोएबल। और अपने को इस भांति पहचान लेना कि मेरे भीतर अज्ञेय
का वास है, स्वयं को मंदिर में बदल लेना है। क्योंकि अज्ञेय ईश्वर का दूसरा
नाम है। हम उसका रस तो पी सकते हैं। उपनिषद कहते हैं–रसो वे सः। हम उसका
स्वाद तो ले सकते हैं, लेकिन उसकी व्याख्या, उसकी परिभाषा, उसे नाम नहीं दे
सकते।
मैंने उस रस को चखा है। और तुम्हारे भीतर भी उस रस को चखने की
जन्मों-जन्मों से प्यास है। वही प्यास तुम्हें खींच लाती है तुम्हारे
बावजूद, क्योंकि खतरा है अज्ञेय में प्रवेश का। ज्ञात से तो आदमी संतुष्ट
होता है: जानता है, पहचानता है। अज्ञात से भी इतना डर नहीं लगता, आज नहीं
कल जान लेंगे। लेकिन अज्ञेय? वहां तो सिर्फ खो जाना है। इस अज्ञेय को हमने
देकर बड़ी भूलें कीं। किसी ने ईश्वर कहा, किसी ने खुदा और किसी ने परमात्मा
और किसी ने यहोवा। और हजार-हजार नाम हमने दिए, जो सब झूठे नाम हैं। हम उसे
जानते ही नहीं, जान सकते भी नहीं; लेकिन जी सकते हैं, जी रहे हैं। वह हमारी
सांस-सांस में है, हमारी आंखों की झलक-झलक में है
कोपलें फिर फूट आईं
ओशो
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