तुम्हारा पूरा का पूरा आनंद हमेशा तुलना में ही होता है। तुलना तुम्हें
इस बात की अनुभूति देती है कि तुम कहा हो उस आदमी से पीछे हो जिसके पास
रोल्स रायस है या उस आदमी से आगे हो जिसके पास बाइक है। ऐसी परिस्थिति में
यह मालूम हो जाता है कि तुम कहां हो, कहा पर खड़े हुए हो। नक्शे पर तो तुम
स्वयं को बता सकते हो, लेकिन स्वयं को जानने के लिए कि तुम कहा हो यह कोई
ठीक ढंग नहीं है। क्योंकि नक्शे पर तो तुम कहीं हो ही नहीं, नक्शा एक
भ्रांति है। तुम नक्शे के कहीं पार हो।
न तो कोई तुम से आगे है और न ही
कोई तुम से पीछे है। तुम अकेले हो, नितांत अकेले। तुम अपने आप में बेजोड़
हो, अनूठे हो। और दूसरा कोई नहीं है जिससे कि तुलना करनी है। इसी कारण से
लोग स्वयं के भीतर जाने से भयभीत होते हैं। क्योंकि तब वे अपने ही एकांत
में प्रवेश करते हैं, जहां सभी मार्ग और सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती
हैं, मिट जाती हैं। सभी तरह के काल्पनिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक
नक्शे सब तिरोहित हो जाते हैं। तब व्यक्ति अपने अस्तित्व के परम एकांत
में पहुंच जाता है और उसे मालूम नहीं होता कि वह कहां है।
पतंजलि योगसूत्र
ओशो
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