एक बार मैं अपने मित्र के साथ ठहरा हुआ था। उसके बगीचे में एक बहुत बडा
पिंजरा था, और उस पिंजरे में उसके पास एक गरुड़ था। वह मुझे पिंजरे के पास
ले गया और कहा ’‘ देखिए! कितना सुंदर गरुड़ पक्षी है? गरुड वास्तव में बहुत
सुंदर था, लेकिन मैंने उसके लिए हृदय में एक पीड़ा महसूस की।’’
मैंने अपने मित्र से कहा ’‘ यह असली गरुड़ पक्षी नहीं है।’’
उसने कहा ’‘ आखिर आपके कहने का मतलब क्या है? यह असली गरुड़ है। क्या आप गरुड़ पक्षी को पहचानते नहीं?”
मैंने कहा ’‘ मैं उन्हें भली भांति जानता हूं लेकिन मैंने उन्हें आकाश
में स्तवंत्र हवा के विरुद्ध, ऊंचे स्वर्ग की ओर उड़ते हुए ही जाना है।
जिन्हें मैंने जाना है वे लगभग इस संसार के जैसे थे ही नही, वे अपने भार का
संतुलन साधे स्वतंत्र
मुक्ताकाश के गहरे प्रेम में जैसे बह रहे थे। मैंने उन्हें परम
स्वतंत्रता से सिर्फ उड़ते ही देखा है। यह गरुड़ तो गरुड़ ही है नहीं। क्योंकि
पिंजरे में बंद गरुड़ के पास खुला आकाश कहां है और बिना स्वर्ग जैसी
ऊंचाइयों पर बिना संतुलन साधे स्वतंत्रता से हवा में उड़ता हुआ यदि गरुड़ न
हो, तो वह असली गरुड़ होता ही नहीं। उसकी वह पृष्ठभूमि कहां है पिंजरे
में मैं कहता हूं कि यह उसकी आकृति भर है।’’
पिंजरे में बंद गरुड़ का असलीपन तो नष्ट हो गया। तुम पिंजरे में असली
गरुड़ को कैद कर ही नहीं सकते, क्योंकि असली गरुड़ तो अत्यधिक स्वतंत्रता के
साथ रहता है। इस पिंजरे में वह स्वतंत्रता कहां है? इसकी आत्मा तो जैसे है
ही नहीं। सारभूत अस्तित्व तो लुप्त हो गया, जो यहां रह गया वह तो असार है।
यह तो जैसे एक मृत गरुड़ है मृत गरुड़ से भी कहीं अधिक मृत और असहाय। इसे
पिंजरे से मुक्त करने इसे सच्चा गरुड़ बनने का अवसर दो।’’
जब मैं तुमसे बातचीत करता हूं तो मेरे शब्द गरुड़ के पिंजरे जैसे हैं,
मेरे शब्द जैसे एक कैद में हैं। यदि तुम वास्तव में मुझे सुनते हो, तुम
शब्दों के पिंजरे में से उसके सारभूत असली गरुड़ को मुक्त कर दोगे।
यह जो घट रहा है…… .यह रोमांच। तुम्हें स्वतंत्रता मिल रही है, तुम गरुड़
बनकर ऊंचे और ऊंचे चेतना के शिखर पर पहुंचो। तुमने पृथ्वी बहुत दूर छोड़ दी
है। तुम उसके बारे में सब कुछ भूल चुके हो। जो साधारण था, वह पीछे छूट
गया। खोल या पिंजरा छोड़ दिया तुमने और अब पूरा आकाश तुम्हारे सामने खुला
है, तुम, तुम्हारे पंख और यह आकाश……. और इसका कोई अंत ही नही है। अब तो
शाश्वत यात्रा हो चुकी है।
शब्दों और उनके अर्थों के बारे में सब कुछ भूल ही जाओ, अन्यथा पिंजरे से
तुम्हारा सम्बंध अधिक रहेगा और तुम स्वयं अपने ही अंदर उस गरुड़ को मुक्त
करने में समर्थ न हो सकोगे।
प्रेमयोग
ओशो
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