बुद्धि हर चीज को दो में बांट देती है। बुद्धि के देखने का ढंग ऐसा है
कि बिना बंटे कोई चीज रह नहीं सकती। बुद्धि है विश्लेषण, बुद्धि है भेद,
बुद्धि है विभाजन, डिवीजन। इसीलिए हमें जन्म और मृत्यु दो दिखाई पड़ते हैं,
बुद्धि से देखने के कारण, अन्यथा दो नहीं हैं। जन्म शुरुआत है, मृत्यु उसी
का अंत है; दो छोर हैं एक ही चीज के। हमें सुख और दुख अलग दिखाई पड़ते हैं,
बुद्धि के कारण, वे दो नहीं हैं।
इसीलिए तो दुख सुख बन जाते हैं, सुख दुख बन जाते हैं। आज जो सुख मालूम
पड़ता है, सुबह दुख हो सकता है। सुबह तो बहुत दूर है, अभी मालूम होता था
सुख, अभी दुख हो सकता है।
यह असंभव होना चाहिए। अगर सुख और दुख दो चीजें हैं अलग अलग, तो सुख कभी
दुख नहीं होना चाहिए, दुख कभी सुख नहीं होना चाहिए। पर हर घड़ी यह बदलाहट
चलती रहती है। अभी प्रेम है, अभी घृणा हो जाती है। अभी लगाव लगता था, अभी
विकर्षण हो जाता है। अभी मित्रता लगती थी, अभी शत्रुता हो जाती है। ये दो
चीजें नहीं हैं, नहीं तो रूपातरण असंभव होना चाहिए। जो अभी जिंदा था, अभी
मर गया! तो जीवन और मृत्यु ये अलग चीजें नहीं होनी चाहिए, नहीं तो
जीवित आदमी मर जाए! कैसे? जीवन मृत्यु में कैसे बदल जाएगा?
हमारी भूल है कि हमने दो में बांट रखा है। हमारे देखने का ढंग ऐसा है कि चीजें दो में बंट जाती हैं। इस
देखने के ढंग को जो एक तरफ रख देता है, बुद्धि को जो हटा देता है अपनी आंख
के सामने से और बिना बुद्धि के जगत को देखता है, तो सारे भेद तिरोहित हो
जाते हैं। अद्वैत का अनुभव उन्हीं लोगों का अनुभव है, वेदांत का सार अनुभव
उन्हीं लोगों का अनुभव है, जिन्होंने बुद्धि को एक तरफ रख कर जगत को देखा।
फिर जगत जगत नहीं, ब्रह्म हो जाता है। और तब जो भीतर जीव मालूम पड़ता था और
वहां ब्रह्म मालूम पड़ता था, वे भी एक चीज के दो छोर रह जाते हैं।
जो मैं
यहां हूं भीतर, और जो वहां फैला है सब ओर वह, दोनों एक ही हो जाते हैं
तत्त्वमसि। तब अनुभव होता है कि मैं वही हूं, उसका ही एक छोर हूं। वह जो
आकाश बहुत दूर तक चला गया है, वही आकाश यहां मेरे हाथ को भी छू रहा है। वही
हवा का विस्तार जो सारी पृथ्वी को घेरे हुए है, वही मेरी श्वास बन कर भीतर
प्रवेश कर रहा है। इस सारे अस्तित्व के प्राण कहीं धड़क रहे हैं, जिनसे यह
सारा जीवन है तारे चलते हैं और सूरज ऊगता है, और चांद में रोशनी है, और
वृक्षों में फल लगते हैं, और पक्षी गीत गाते हैं, और आदमी जीता है सब के
भीतर छिपा हुआ जो प्राण धड़क रहा होगा कहीं विश्व के केंद्र में, और मेरे
शरीर में जो हृदय की धीमी धीमी धड़कन है, वे एक ही चीज के दो छोर हैं। वे
दो नहीं हैं।
आध्यात्म उपनिषद
ओशो
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