जितना कठिन काम हो, उतना अहंकार करने को आतुर हो जाता है। अहंकार सरल
काम करने में जरा भी उत्सुक नहीं है। सरल काम अहंकार के लिए बिलकुल ही
रुचिपूर्ण नहीं है। इसलिए अहंकार ऊंचाइयों की भाषा में सोचता है, विचार
करता है। और स्वभावतः जब तुम ऊंचाइयों की भाषा में सोचना शुरू करो, तो अपना
बौनापन भी दिखाई पड़ेगा। तुम बौनी नहीं हो, कोई बौना नहीं है अहंकार
तुम्हें बौना बना देता है। पहले अहंकार एक शिखर खड़ा कर देता है सामने बहुत
ऊंचाई पाने के लिए एक महत्वाकांक्षा। फिर जब लौटकर अपनी तरफ देखते हो तो
पाते हो मैं इतना छोटा, मेरे हाथ इतने छोटे, इस बड़े आकाश को मैं कैसे पा
सकूंगा? तब तड़प पैदा होती है। यह अहंकार का रोग है।
न तो कोई ऊंचाई पानी है; परमात्मा ऊंचा नहीं है, परमात्मा तुम्हारी
निजता है। परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है। पाने की भाषा ही छोड़ो, पाया
हुआ है। यही मेरी उदघोषणा है। परमात्मा को तुम छोड़ना भी चाहो, तो छोड़ न
सकोगे, छोड़ने का कोई उपाय नहीं है, उसके बिना जीओगे कैसे?
इसलिए तुमसे अब तक कहा गया है, परमात्मा को पाओ। मैं तुमसे कहता हूं,
सिर्फ याद करो, पाने की बात ही नहीं करो। पाना कुछ है नहीं, पाया हुआ है।
परमात्मा हमारी निजता का ही नाम है। परमात्मा तुम्हारे भीतर समाविष्ट है,
तुम उसके भीतर समाविष्ट हो। जैसे बूंद में सागर है; एक बूंद का रहस्य समझ
लो, तो सारे सागरों का रहस्य समझ में आ गया। जैसे एक एक किरण में सूरज है;
एक किरण पहचान ली, तो प्रकाशों के सारे राज खुल गए! एक किरण का घूंघट उठ
जाए, तो सारे सूरज का घूंघट उठ गया। ऐसे ही तुम किरण हो उस सूरज की। तुम
बूंद हो उस सागर की। तुममें सब छिपा है। तुममें पूरा समाया है, पूरा पूरा
समाया है!
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि परमात्मा दूर है, बहुत ऊंचाई पर है, चढ़ने हैं
पहाड़ तब मिलेगा। मैं तुमसे यह कह रहा हूं, जरा आंख बंद करनी है, जरा चलना
छोड़ना है, जरा दौड़ना बंद करना है; बैठ रहो और मिल जाए; चुप हो रहो और मिल
जाए। मैं तो कठिन की बात ही नहीं कर रहा हूं।
लेकिन अहंकार का जाल यही है। अहंकार कठिन में उत्सुक होता है, क्योंकि
कठिन के सामने ही सिद्ध करने का मजा है। जितनी बड़ी कठिनाई को सिद्ध कर
सकोगे, उतना ही अहंकार तृप्त होगा।
कहै वाजिद पुकार
ओशो
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