मैंने सुना है, एक अंधे आदमी की आंख का ऑपरेशन हो रहा था। उसने डाक्टर
से पूछा कि क्या आंख के ऑपरेशन के बाद मैं पढ़ना लिखना कर सकूंगा? डाक्टर ने
कहा, निश्चित। जाली है तुम्हारी आंख पर, कट जाएगी जाली, निकल जाएगी जाली,
जरूर पढ़ लिख सकोगे। वह आदमी बड़ी खुशी से बोला कि हे प्रभु, तेरा बड़ा
धन्यवाद है! डाक्टर ने कहा, इसमें धन्यवाद प्रभु को देने की कोई जरूरत
नहीं, यह तो स्वाभाविक है, आंख से जाली कट गई कि पढ़ना लिखना आसान हो जाएगा।
उस अंधे ने कहा, लेकिन बात यह है कि पढ़ना लिखना मैं जानता नहीं। जब मेरी
आंख ठीक थी तब भी मैं पढ़ लिख नहीं सकता था। तो यह चमत्कार ही है कि अब तुम
जाली काट दोगे और मुझे पढ़ना लिखना आ जाएगा। इससे बड़ा और चमत्कार क्या हो
सकता है!
अगर पढ़ना लिखना नहीं आता तो आंख की जाली कटने से भी नहीं आ जाएगा।
यहां तुम्हें परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता; जंगल में भी आंख तो यही होगी,
तुम तो यही होओगे ठीक यही, जरा सा भी तो भेद न होगा। परिस्थिति बदल जाएगी,
मनःस्थिति तो न बदल जाएगी। तुम यहां नहीं देख पाते उसे, वहां कैसे देख
पाओगे? इन वृक्षों में नहीं दिखाई पड़ता, जंगल के वृक्षों में कैसे दिखाई
पड़ेगा? लोगों में नहीं दिखाई पड़ता, पत्थर पहाड़ों में कैसे दिखाई पड़ेगा?
लेकिन आदमी बेईमान है। तीर्थों में खोजने इसलिए नहीं जाता कि तीर्थों
में परमात्मा मिलता है। तीर्थों में खोजने इसलिए जाता है कि यह भी परमात्मा
से बचने की अंतिम व्यवस्था है, आखिरी चालाकी—कि खोज तो रहे हैं भाई, और
क्या करें! इतना श्रम उठा रहे हैं, नहीं मिलता तो भाग्य में नहीं होगा;
नहीं मिलता तो शायद होगा ही नहीं; नहीं मिलता तो शायद मिलना ही नहीं चाहता
है। लेकिन अपनी तरफ से तो हमने सब दांव पर लगा दिया है, घर छोड़ दिया, द्वार
छोड़ दिया, खोजने निकल पड़े हैं। यह आखिरी तरकीब है। कभी तुम धन खोजते थे,
उस कारण परमात्मा को न पा सके। कभी पद खोजते थे, उस कारण परमात्मा को न पा
सके। अब तुम परमात्मा को ही खोज रहे हो और उस कारण परमात्मा को न पा सकोगे,
क्योंकि खोजने वाला चित्त वासनाग्रस्त है। और जहां वासना है वहां
प्रार्थना नहीं है। और जब तक तुम्हारे मन में तनाव है कुछ पाने का, तब तक
तुम पा न सकोगे। जब तक दौड़ोगे, चूकोगे। रुको और पा लो।
काहे होत अधीर
ओशो
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