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Thursday, March 31, 2016

ओम क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर

अगर एक व्यक्ति कुत्ते को बहुत प्रेम किए चला जा रहा है तो यह बिलकुल आकस्मिक नहीं है। उसके भीतर के आलयविज्ञान में स्मृतियां हैं, जो उसे कुत्ते के साथ बड़ी सजातीयता बड़ा अपनापन, बड़ी निकटता का बोध करवाती हैं। हमारे जीवन में जो भी घटता है, वह आकस्मिक नहीं है, एक्सीडेंटल नहीं है। उसकी गहरी कार्य कारण की प्रक्रिया पीछे काम करती होती है।


मृत्यु में शरीर गिरता है, लेकिन मन यात्रा करता चला जाता है। और मन संगृहीत होता चला जाता है। इसलिए आपके मन में कई बार ऐसे रूप आपको दिखाई पड़ेंगे, जिनको आप कहेंगे, ये मेरे नहीं हैं। आपको भी कई बार लगेगा कि कुछ काम आप ऐसे कर लेते हैं जिनको आपको कहना पड़ता है, इनस्पाइट आफ मी, मेरे बावजूद हो गया।


एक आदमी का किसी से झगड़ा होता है और वह दांत से उसकी चमड़ी काट लेता है। पीछे वह सोचता है कि मैं और दांत से चमड़ी काट सका! मैं कोई जंगली जानवर हूं? आज वह नहीं है, कभी वह था। और किसी क्षण में उसके भीतर की स्मृति इतनी सक्रिय हो सकती है कि वह बिलकुल पशु जैसा व्यवहार करे। हममें से सभी लोग अनेक मौकों पर पशुओं जैसा व्यवहार करते हैं। वह व्यवहार आसमान से नहीं उतरता, हमारे भीतर के ही चित्त के संग्रह से आता है।


हमारी मृत्यु सिर्फ हमारे शरीर की मृत्यु है, संकल्पात्मक मन मरता नहीं। इसलिए ऋषि को मजाक का मौका न होता, अगर मृत्यु हो रही होती। इसलिए मैं आपसे कहना चाहता हूं कि यह सूत्र समाधि के क्षण का है। समाधि के साथ एक भेद है कि समाधि की पूर्वघोषणा हो सकती है। क्योंकि मृत्यु आती है, समाधि लाई जाती है। मृत्यु घटती है, समाधि का आयोजन करना पड़ता है। एक एक कदम ध्यान का उठाकर आदमी समाधि तक पहुंचता है।


यह भी आप खयाल रख लें कि समाधि शब्द बड़ा अच्छा है। कब्र के लिए भी कभी आप समाधि बोलते हैं। साधु मर जाता है तो उसकी कब्र को समाधि कहते हैं। सच है यह बात। समाधि एक तरह की मृत्यु है। बड़ी गहरी मृत्यु है। शरीर तो शायद वही रह जाता है, लेकिन भीतर जो मन था वह विनष्ट हो जाता है।


उस मन के विनष्ट होने के क्षण में ऋषि कह रहा है कि हे मेरे संकल्पात्मक मन, अपने किए हुए का स्मरण कर, अपने किए हुए का स्मरण कर।


क्यों? इसलिए कि इसी मन ने कितने धोखे दिए। और यह मन आज खुद ही नष्ट हुआ जा रहा है। जिस मन को हमने समझा मेरा है, जिसके आधार पर जीए और मरे। जिसके आधार पर काम किए, हारे और जीते। जिसके आधार पर जय और पराजय की आकांक्षाएं बांधी। जिसके आधार पर सुखी और दुखी हुए। सोचा था कि जो सदा साथ देगा, आज वही धोखा दिए जा रहा है। जिसके कंधे पर हाथ रखकर इतनी लंबी यात्रा की, आज पाया कि वह कंधा भी विदा हो रहा है। जिस नाव को समझा था कि नाव है, आज पाया कि वह भी पानी ही सिद्ध हुई और नदी में मिली जा रही है।

ईशावास्य उपनिषद 

ओशो 

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