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Tuesday, March 8, 2016

भीतर की संपदा

मैं एक कहानी पढ़ता था। एक हवाई जहाज जल गया बीच आकाश में और एक युवती मर गई। वह युवती लंदन जा रही थी। तो मरते वक्त उसे बस एक ही खयाल था कि अरे, लंदन न पहुंच पायी! वह पति की प्रतीक्षा कर रही थी। पति आतुर होकर प्रतीक्षा कर रहा होगा। बस एक ही धुन थी, उस धुन के कारण उसकी प्रेतात्मा सीधी लंदन पहुंच गयी। 

लेकिन वह चकित हुई: लंदन बिलकुल खाली था! लोग कहां खो गये! क्योंकि जब अपना शरीर खो जाये तो दूसरों के शरीर दिखायी नहीं पड़ते। उसे अभी तो खयाल में नहीं आया था कि अपना शरीर खो गया। क्योंकि यह शरीर खो भी जाता है तो सूक्ष्म शरीर तो खोता नहीं; वह बिलकुल इस जैसा ही है–इससे ज्यादा सुंदर, इससे ज्यादा कमनीय, इससे ज्यादा सूक्ष्म; पर ठीक इसकी प्रतिलिपि! सचाई तो यह होगी कि यह शरीर उसकी प्रतिलिपि है। तो उसे अभी यह तो पता ही न चला था कि मेरा शरीर खो गया; लेकिन जब उसने लंदन में जाकर देखा; तो सारे घर खाली पड़े हैं। मकानों से रोशनी निकल रही है, खिड़कियों से रोशनी निकल रही है, लेकिन घर सन्नाटा है, कहीं कोई नहीं। वह थेम्स नदी के पुल पर खड़ी हो गयी जाकर। उसे भरोसा ही न हुआ कि जहां हजारों लोग निकलते रहते हैं, वहां कोई भी नहीं निकल रहा है। हजारों लोग अब भी निकल रहे हैं। लेकिन देह अपनी खो गयी तो दूसरी देह से संबंध नहीं जुड़ता। लेकिन तभी अचानक उसे दिखायी पड़ा, उसका पति भी पुल से निकल रहा है। जब पति निकला तो उसे दिखायी पड़ा। क्योंकि पति से एक लगाव था, एक घनीभूत वासना थी, प्रेम था। उस प्रेम के कारण एक सूत्र जुड़ा था। उस प्रेम के कारण वह पति के शरीर से ही नहीं जुड़ी थी, पति के सूक्ष्म शरीर से भी थोड़े संबंध हुए थे। उस सूक्ष्म शरीर से संबंध के कारण उसे पति थोड़ा-सा दिखायी पड़ा, पहले धुंधला-धुंधला, फिर रेखा उभरी, फिर साफ हुआ। लेकिन जब उसे पति दिखायी पड़ा तो चकित हुई कि जैसे ही उसे पति दिखायी पड़ा, और लोग भी दिखायी पड़ने लगे। क्योंकि जब एक शरीर दिख गया तो दूसरे शरीर भी दिखाई पड़ने लगे। तत्क्षण पूरा लंदन भरा था–एक क्षण में–लंदन खाली न था! हजारों लोग आ-जा रहे थे, मकान भरे थे!

 
यह कहानी मुझे बड़ी प्रीतिकर लगी, जिसने भी लिखी हो, बड़ी सूझ से लिखी है। कहानी तो कल्पित है, लेकिन सूझ गहरी है।


हमें वही दिखायी पड़ता है जहां हम हैं। अभी हमें शरीर दिखायी पड़ते हैं। इसलिए मौत से हमारा संबंध होने ही वाला है। मौत हमें दिखायी पड़ेगी क्योंकि शरीर की मौत होती है। इसलिए हम मौत से भयभीत हैं। जैसे ही दृष्टि जगती है और हमें दिखायी पड़ता है, हम शरीर नहीं हैं–मौत के हम बाहर हो गये! फिर मौत भी हमको नहीं देख सकती। वह भी हमको तभी तक देख सकती है जब तक हम शरीर हैं और शरीर में हैं, और माने हुए हैं कि हम शरीर ही हैं। जब तक हम शरीर के ठोसपन से जुड़े हैं, तभी तक हम मौत की सीमा में हैं। जैसे ही हम शरीर के ठोसपन से मुक्त हुए, हम मौत के बाहर हुए।


इस जिंदगी में इन तीनों लोकों में जो भी मिल जाता है, वह बाहर-बाहर है। वह हमारा कभी नहीं हो पाता। जो बाहर है वह बाहर ही रह जाता है; उसे तुम भीतर ले जाओगे बैसे? तुम संपत्ति का ढेर लगा लोगे, ढेर बाहर लगेगा, भीतर कैसे लगाओगे? भीतर ज्यादा से ज्यादा हिसाब रख सकते हो, संपत्ति के आंकड़े रख सकते हो; वह भी बहुत भीतर नहीं, वह भी मन में होंगे; वह भी चैतन्य में न पहुंच पाएंगे। चैतन्य तक तो आंकड़े भी नहीं पहुंचेंगे, संपत्ति तो बाहर रहेगी, गणित मन तक पहुंच जायेगा। संपत्ति मन तक भी नहीं पहुंचेगी, गणित भी न पहुंच पायेगा चैतन्य तक। तुम्हारी चेतना तो पार ही रहेगी। तो जब तक भीतर की कोई संपदा न मिल जाये तब तक कोई संपदा काम की नहीं है।


जिन सूत्र 

ओशो 

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