तुमने कहानी तो सुनी है न, एक सिंह को यह सवार हो गया खयाल कि फिर से
पूछ ले एक दफा राजा मैं ही हूं न! पूछा खरगोश से। खरगोश ने कहा कि मालिक,
आप ही हैं और कौन होगा? खरगोश तो घबड़ा गया, जैसे ही सिंह ने पकड़ा उसे कि एक
मुसीबत आयी! जैसे ही उसने कहा कि मालिक, आप ही हो राजा, खरगोश को छोड़ दिया
सिंह ने। पकड़ा एक हरिण को। उसने भी कहा कि आप ही हैं सम्राट, सदा से आप
हैं! ऐसा और भी पूछता फिरा। फिर एक हाथी के पास आया, हाथी से कहा कि
तुम्हारा क्या खयाल है, सम्राट कौन है? हाथी ने उसे अपनी सूंड में लिया और
घुमाकर फेंका कोई पचास फीट दूर। जमीन पर गिरा, हड्डी चकनाचूर हो गयी।
झाडू पोंछ कर उठा और हाथी से बोला कि भाई, अगर तुम्हें ठीक उत्तर मालूम
नहीं, तो साफ कह देते! इतना नाराज होने की क्या बात थी? कह देते कि हमें
नहीं मालूम, बात खत्म हो गयी!
किसी पशु से पूछो! तोते से पूछोगे, तो कहेगा : कहां है तुम्हारे पास ऐसी
हरियाली जैसी मेरे पास है? यह तोतापंखी रंग! बगुले से पूछोगे, तो कहेगा.
कहां ऐसी सफेदी है तुम्हारे पास? कितनी ही शुद्ध खादी पहनो, मगर कहां यह
बगुले जैसी सफेदी! चाहे पोलियेस्टर खादी बना लो, मगर नहीं पा सकोगे यह
सफेदी, यह स्वच्छता! और यह ध्यानमग्न भाव. जब बगुला खड़ा होता है एक टाग पर।
योगी बड़ी मेहनत से सिद्ध करू पाते हैं उसको बगुलासन कहते हैं। बड़ी मुश्किल
से एक पैर पर खड़ा होना सिद्ध कर पाते हैं। बगुला जन्म से ही लेकर आता
है बिलकुल सिद्धपुरुष!
तुम किसी से भी पूछो। गुलाब से पूछोगे, कहेगा : कहां ऐसे फूल तुम्हारे
पास हैं? कहां ऐसी सुगंध? सिंह से पूछोगे… किससे पूछोगे? जिससे पूछोगे वही
हंसेगा तुम्हारी बात पर, कि जरा देखो भी तो, अपनी शक्ल तो आईने में देखो।
उड़ सकते हो आकाश में मेरे जैसे? लेकिन आदमी खुद ही अपने को मान लिया है कि
श्रेष्ठ है। यह अहंकार भर है।
और अक्सर ऐसा होता है, जिनको तुम धार्मिक आदमी कहते हो, उनमें यह वहम
बहुत होता है कि आदमी सबसे श्रेष्ठ है। और आदमी ही किताबें लिखते हैं; कोई
पशु पक्षी इस तरह की झंझट में पड़ते ही नहीं। तो अपनी किताबों में खुद ही
लिख लेते। तुम्हारे हाथ में है जो लिखना है लिख लो, तो लिख लिया किताब में
कि परमात्मा ने आदमी को अपनी ही शक्ल में बनाया है। अब न परमात्मा से किसी
ने पूछा, न उसने कोई सर्टिफिकेट दिया, न किसी और पशु पक्षी से पूछा। अगर
गधे किताब लिखेंगे तो बराबर किताब में लिखेंगे कि परमात्मा ने गधों को अपनी
ही शक्ल में बनाया। और किसकी शक्ल में बनायेगा?
यह तो प्रत्येक की अस्मिता है। यह अहंकार धार्मिक व्यक्ति को नहीं होना
चाहिए। मगर धार्मिक व्यक्ति में सर्वाधिक पाया जाता है, कि हम पशु से कुछ
श्रेष्ठ हैं। यह श्रेष्ठ की भावना तो सभी में पायी जाती है। यह अहंकार तो
सभी में है। कोई कहता है, कोई नहीं कहता है। यह कुछ विशिष्ट बात नहीं है।
असली विशिष्टता तो तभी पैदा होती है जब यह सारा अहंकार चला जाता है। मगर उस
घड़ी में न तो तुम मनुष्य होते, न तुम पशु होते, न पक्षी होते तुम सिर्फ
चैतन्य मात्र रह जाते हो। वह घड़ी विशिष्ट है। ये तो ऊपर के ही खोलों के भेद
हैं कोई तोता है, कोई कौआ है, कोई बगुला है, कोई आदमी है, कोई घोड़ा है,
कोई सिंह है। ये तो सिर्फ घरों के भेद हैं, भीतर जो बसा है वह तो एक ही
है एक ही चैतन्य! ये तो आवरण भेद हैं। कोई गुलाब है, कोई जूही है, कोई
चमेली है; मगर भीतर जो रसधार बह रही है जीवन की वह तो एक ही है। कहीं फूल
सफेद और कहीं लाल और कहीं पीले, मगर भीतर जो खिल रहा है फूलों में, वह
खिलावट तो एक ही है।
मरो हे जोगी मरो
ओशो
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