कभी किसी कुत्ते को देखा, सूखी हड्डी को चबाते! चबाता है कितने रस से!
तुम बैठे चकित भी होओगे कि सूखी हड्डी में चबाता क्या होगा! सूखी हड्डी में
कोई रस तो है नहीं। सूखी हड्डी में चबाता क्या होगा! लेकिन होता यह है कि
जब सूखी हड्डी को कुत्ता चबाता है तो उसके ही जबड़ों, जीभ से, तालू से
लहू–सूखी हड्डी की टकराहट से लहू बहने लगता है। उसी लहू को वह चूसता है।
सोचता है, हड्डी से रस आ रहा है। हड्डी से कहीं रस आया है! अपना ही खून
पीता है। अपने ही मुंह में घाव बनाता है। भ्रांति यह रखता है कि हड्डी से
रस आता है। हड्डी से खून आ रहा है।
जिन्होंने भी जागकर देखा है, थोड़ा अपना
मुंह खोलकर देखा है, उन्होंने यही पाया है कि इंद्रिय-सुख सूखी हड्डियों
जैसे हैं, उनसे कुछ आता नहीं। अगर कुछ आता भी मालूम पड़ता है तो वह हमारी ही
जीवन की रसधार है। और वह घाव हम व्यर्थ ही पैदा कर रहे हैं। जो खून हमारा
ही है, उसी को हम घाव पैदा कर-कर के वापिस ले रहे हैं।
काम-भोग में जो सुख मिलता है, वह सुख तुम्हारा ही है जो तुम उसमें डालते
हो। वह तुम्हारे काम-विषय से नहीं आता। स्त्री को प्रेम करने में, पुरुष
को प्रेम करने में तुम्हें जो सुख की झलक मिलती है, वह न तो स्त्री से आती
है न पुरुष से आती है, तुम्हीं डालते हो। वह तुम्हारा ही खून है, जो तुम
व्यर्थ उछालते हो। पर भ्रांति होती है कि सुख मिल रहा है।
कुत्ते को कोई
कैसे समझाए! कुत्ता मानेगा भी नहीं। कुत्ते को इतना होश नहीं।
लेकिन तुम तो
आदमी हो! तुम तो थोड़े होश के मालिक हो सकते हो! तुम तो थोड़े जाग सकते हो!
जिनसूत्र
ओशो
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