मैंने सुना है, एक आदमी अमरीका की एक कार बेचनेवाली दुकान में गया। वह
जिस कार को खरीदना चाहता था, उसका मिलना मुश्किल था। दुकानदार ने कहा, “कम
से कम साल भर रुकना पड़ेगा। लंबा क्यू है। और कोई उपाय नहीं अभी देने का।’
वह आदमी बड़ा नाराज हो गया। उसने कहा कि सालभर! गुस्से में उसने अपने खीसे
से नोटों के बंडल निकाले और जो कचरा फेंकने की टोकरी थी, उसमें डालकर
दरवाजे के बाहर हो गया। दुकानदार भी चकित हो गया। और बहुत धनी लोग देखे थे,
मगर यह आदमी अदभुत है! हजारों डालर, ऐसे कचरे में डालकर चला गया। उसने
जल्दी से नोट निकलवाये, गिनती करवाई; दुगने थे, जितने कि कार के दाम हो
सकते थे। उसने फौरन अपने आदमियों को कहा कि जाकर कार उसके घर पहुंचा दो।
कार घर पहुंचा दी। दूसरे दिन वह हैरान हुआ। भागा हुआ उस आदमी के घर गया और
कहा, “महानुभाव! वह सब नोट नकली हैं।’ उस आदमी ने कहा, नकली न होते तो हम
कचराघर में फेंकते?
एक बार तुम्हें दिखाई पड़ जाये कि नोट नकली हैं, तो कचराघर में फेंकना भी
आसान है। अड़चन कहां है? वस्तुतः ढोना मुश्किल हो जायेगा। उस बोझ को तुम
किसलिये ढोओगे! उस बोझ को किस कारण ढोओगे!
महावीर तुमसे श्रद्धा जन्माने को नहीं कहते। यही महावीर का और अन्य
शिक्षकों का भेद है। महावीर कहते हैं, तुम अपनी आशंका को ठीक से पहचान लो,
वह गिर जाएगी। जो शेष रह जायेगा, वही श्रद्धा है। इसलिये महावीर श्रद्धा
शब्द का उपयोग नहीं करते। एक-एक शब्द खयाल करना। यहां महावीर श्रद्धा कह
सकते थे, लेकिन नहीं कहा; साहस कह सकते थे, नहीं कहा। नकारात्मक शब्द उपयोग
किया: निःशंका। कोई विधायक शब्द उपयोग न किया, क्योंकि विधायक की कोई
जरूरत नहीं है। सिर्फ आशंका की समझ आ जाए कि व्यर्थ है, कोरी है, अकारण
है–जैसे ही आशंका गिर जाती है तो जो शंकारहित चित्त की दशा है वही श्रद्धा
है, वही साहस है, वही अभय है। तुम्हारे भीतर एक अनूठी ऊर्जा का जन्म होगा।
वह दबी पड़ी है। तुम्हारी चट्टान ने, आशंका की चट्टान ने उस झरने को फूटने
से रोका है। हटा दो चट्टान: झरना अपने से फूट पड़ेगा! झरना तो है ही! झरना
तुमने खोया नहीं है।
इसलिए महावीर नहीं कहते कि झरने को खोजो। महावीर नहीं कहते कि श्रद्धा को आरोपित करो। महावीर कहते हैं, सिर्फ आशंका को उघाड़ो।
जिन सूत्र
ओशो
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