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Tuesday, March 8, 2016

जीवन का व्यंग्य

एक गांव में एक नया-नया इंस्पेक्टर आया। वह दिनभर बैठा रहा। कपड़े-लत्ते सजाकर, बैल्ट इत्यादि, जूते इत्यादि बांधकर दिनभर बैठा रहा। बार-बार चौंककर देखे; लेकिन कोई घटना ही न घटी दिनभर। न कोई चोरी हुई न कोई डाका पड़ा, न कहीं कोई हत्या हुई, न किसी ने आत्महत्या की, न कोई दंगा-फसाद हुआ, न कोई हिंदू-मुसलमान मरे, कुछ भी न हुआ। वह जरा उदास होने लगा। सांझ होने लगी तो उसका चेहरा एकदम फीका पड़ने लगा।


उसके मुंशी ने कहा, “आप घबड़ाओ मत! मुझे मनुष्य के स्वभाव पर पूरा भरोसा है। ठहरो, कुछ न कुछ होकर रहेगा। अभी रात पड़ी है। तुम इतने उदास क्यों हुए जा रहे हो?’


अब वह जो चोर को पकड़ने पर जीता है, वह पकड़ता चोर को है, लेकिन प्रतीक्षा करता है कहीं चोरी हो! वह जो न्यायाधीश है, वह सजा देता है हत्यारों को, लेकिन उसका सारा होना उन्हीं के होने पर निर्भर है। उन्हीं की साझेदारी में वह न्यायाधीश है। जीवन के इस व्यंग्य को समझना।


साधु तुमसे कहे चला जाता है कि क्या तुम असाधु बने हो, बनो साधु! बनना भर मत, अन्यथा वह नाराज हो जाएगा। एक साधु दूसरे साधु से प्रसन्न थोड़े ही है! एक साधु दूसरे साधु से बड़ा अप्रसन्न है। तुम असाधु हो, इससे वह खुश है। उसकी साधुता, उसका ऊंचा सिंहासन तुम्हारी छाती पर लगा है। अगर वास्तविक रूप से किसी दिन दुनिया धार्मिक हो जायेगी तो न असाधु रह जाएंगे, न साधु रह जाएंगे।


साधु का सारा बल इसमें है कि उनके पास चरित्र है और तुम्हारे पास नहीं है। उसने कुछ करके दिखा दिया है जो तुम नहीं कर पाए; भला वह करना बिलकुल मूढ़तापूर्ण है। भला वह इस तरह का मूढ़तापूर्ण हो कि एक आदमी रास्ते पर शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाता है। अब इसमें कुछ गुण नहीं है, लेकिन भीड़ लग जायेगी। लोग पैसे भी चढ़ाने लगेंगे। क्योंकि तुम शीर्षासन लगाकर घंटों नहीं खड़े रह सकते। बस इतना काफी है। कोई आदमी छत्तीस घंटे साइकिल पर चढ़ा हुआ चक्कर लगाता रहता है। उसको भी पैसे मिल जाते हैं, उसके भी अखबार में फोटो छप जाते हैं। कुछ अर्थ नहीं है। छत्तीस घंटे या छत्तीस जन्म भी साइकिल पर चढ़े रहो–क्या सार है? लेकिन जो दूसरे नहीं कर सकते, वह किसी ने कर दिया–बस काफी है, उसका सम्मान होना शुरू हो जाता है।



 जिन सूत्र 


ओशो 

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