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Sunday, March 13, 2016

ध्यान छूटछूट जाता है

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते है कि ध्यान करते हैं, छूटछूट जाता है; दो दिन चलता है, फिर बंद हो जाता है। ऐसा वासना के साथ नहीं होता। ऐसा क्रोध के साथ नहीं होता। तुम कभी भूलकर भी छोड़ नहीं पाते। उसे तुम पक्के ही रहते हो। मामला क्या है? ध्यान कर करके छूट जाता है; दो दिन करके फिर भूल जाते है। फिर चार छह महीने में याद आती है। प्रार्थना कर करके छूट जाती है; और, क्रोध और लोभ और काम और मोह?

 एक तथ्य को समझने की कोशिश करो: क्योंकि, ध्यान तुम्हें करना पड़ता है, इसलिए छूट छूट जाता है। वे बीज है जो बोने पड़ते है; उन्हें सम्हालना पड़ेगा और यह सब कचरा अपने आप उगता है। जो भी अपने आप चल रहा है, उसे व्यर्थ समझना और जब तक तुम उसी में जीते रहोगे, तब तक तुम्हें कुछ भी न मिलेगा। मौत के समय तुम पाओगे कि तुम खाली हाथ आये और खाली हाथ जा रहे हो। और, यह अविवेक ही माया है। यह मूर्च्छा है यह भेद न कर पाना कि क्या सार्थक है, क्या व्यर्थ है।


शिव ने सार्थक और व्यर्थ के विवेक को भी ज्ञान कहा है: जीवन में यह दिखाई पड़ जाये कि यह सार्थक और यह व्यर्थ। वहां दोनों हैं वहां घास पात भी है और फूल के पौधे भी हैं। तुम्हें ही अपने जीवन के अनुभव से तय करना पड़ेगा कि क्या सार्थक है। सार्थक पर दृष्टि आ जाये तो ब्रह्म पर दृष्टि आ गई और व्यर्थ पर दृष्टि लगी रहे तो माया में भटकन है।


न तुम्हें पता है कि तुम कौन हो; न तुम्हें पता है कि तुम किस दिशा में जा रहे हो; न तुम्हें पता है कि तुम कहां से आ रहे हो, तुम बस रास्ते के किनारे के कचरे से उलझे हुए हो। राह के किनारे को तुम ने घर बना लिया है। और, इतनी चिंताओं से तुम भरे हो इस व्यर्थ के कचरे के कारण, जो तुम्हारे बिना ही उगता रहा है। तुम्हें इस संबंध में चिंतित होने का कोई भी प्रयोजन नहीं।


अविवेक माया है। अविवेक का अर्थ है. भेद न कर पाना, डिसक्रिमिनेशन का अभाव, यह तय न कर पाना कि क्या हीरा है और क्या पत्थर है। जीवन के जौहरी बनना होगा। जीवन के जौहरी बनने से ही विवेक पैदा होता है।

शिवसूत्र 

ओशो 

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