पहली तो बात यह कि तुम्हारे विचार तुम्हारे नहीं हैं। तुमने उन्हें
इकट्ठा कर लिया है। जैसे अंधेरे कमरे में, कभी रोशनी की किरण छत से चली आती
है और तुम धूल के असंख्य कणों को उस किरण में तैरते हुए देख लेते हो। जब
मैं तुममें झांकता हूं मैं वही घटना देखता हूं धूल के लाखों कण। तुम
उन्हें विचार कहते हो। वे तुम्हारे बाहर भीतर चल रहे हैं। वे एक सिर से
दूसरे में प्रवेश करते हैं, और वे चलते जाते हैं। उनकी अपनी जिंदगी है।
विचार एक वस्तु है; उसका अपना स्वयं का अस्तित्व होता है। जब कोई आदमी
मरता है, तो उसके सारे पागल विचार तुरंत निकल भागते हैं और वे कहीं न कहीं
शरण ढूंढना शुरू कर देते हैं। फौरन वे उनमें प्रवेश कर जाते हैं जो आस पास
होते हैं। वे कीटाणुओं की भांति होते हैं; उनका अपना जीवन है। तुम जब जीवित
भी होते हो, तब तुम अपने चारों ओर विचार बिखेरते चले जाते हो। जब तुम
बोलते हो, तब निस्संदेह अपने विचार तुम दूसरों में फेंकते हो। किंतु जब तुम
मौन होते हो, तब भी तुम चारों ओर विचार फेंक रहे होते हो। वे तुम्हारे
नहीं होते : यह तो है पहली बात।
विधायक तर्क वाला व्यक्ति उन सारे विचारों को निकाल फेंकेगा, जो उसके
अपने न हों। वे प्रामाणिक नहीं होते हैं; उन्हें उसने स्वयं अनुभव द्वारा
नहीं पाया होता। उसने दूसरों द्वारा संचित कर लिया है, वे उधार हैं। वे
मैले हैं। वे बहुत हाथों और सिरों में रहे हैं। सोचने विचारने वाला व्यक्ति
उधार नहीं जीयेगा। वह अपने स्वयं के ताजे विचार पाना चाहेगा। और अगर तुम
विधायक हो, और अगर तुम सौंदर्य को, सत्य को, शुभ को, फूलों को देखते हो,
अगर तुम सबसे अढ़िग्यारी रात में भी देखने के योग्य हो जाते हो कि सबेरा
निकट आ रहा है, तो तुम विचारने के योग्य हो जाओगे।
तब तुम स्वयं अपने विचार निर्मित कर सकते हो। और वह विचार जो तुम्हारे
द्वारा निर्मित हो जाता है, वास्तव में शक्तिशाली होता है; उसकी स्वयं की
अपनी शक्ति होती है। ये विचार जो तुमने उधार ले लिये हैं, करीब करीब मुरदा
हैं। क्योंकि वे यात्रा करते रहे हैं, लाखों वर्षों से यात्रा कर रहे हैं।
उनका स्रोत खो चुका है। अपने स्रोत के साथ वे सारा संपर्क खो चुके हैं। वे
तो बस चारों ओर तैरते धूलि कणों की भांति हैं। तुम उन्हें पकड़ लेते हो। कई
बार तुम उनके प्रति जाग्रत भी हो जाते हो, लेकिन तुम्हारी जागृति ऐसी है कि
चीजों को आर पार देख नहीं सकती।
कई बार तुम बैठे हुए होते हो। अचानक तुम उदास हो जाते हो बिना किसी भी
कारण के। तुम कारण ढूंढ नहीं सकते। तुम चारों ओर देखते हो, और कारण कोई
होता नहीं। कुछ नहीं है वहां, कुछ घटित नहीं हुआ। तुम बिलकुल वैसे ही हो।
अचानक एक उदासी तुम्हें जकड़ लेती है। एक विचार गुजर रहा है; तुम तो बस
रास्ते में हो। यह एक दुर्घटना है। विचार एक बादल की भांति गुजर रहा था एक
उदास विचार किसी के द्वारा छोड़ा हुआ। यह एक दुर्घटना है कि तुम पक्क में आ
गये हो। कई बार कोई विचार अड़ा रहता है। तुम नहीं जानते कि तुम क्यों इसके
बारे में सोचते चले जाते हो।
यह बेतुका दिखाई पड़ता है; यह किसी काम का नहीं
जान पड़ता। लेकिन तुम कुछ नहीं कर सकते। यह द्वार खटखटाये चला जाता है। यह
कहता है, ‘मुझे सोचो।’ एक विचार द्वार पर प्रतीक्षा कर रहा है खटखटाता हुआ।
यह कहता है, ‘स्थान दो, मैं भीतर आना चाहूंगा।’ प्रत्येक विचार का अपना
स्वयं का जीवन है। यह चलता रहता है। और इसके पास ज्यादा शक्ति है। और तुम
बहुत कमजोर हो क्योंकि तुम बहुत बेखबर हो; अत: तुम विचारों द्वारा चलाये
जाते हो! तुम्हारा सारा जीवन ऐसी दुर्घटनाओं से बना है। तुम लोगों से मिलते
हो, और तुम्हारी जिंदगी का सारा ढांचा ढर्रा बदल जाता है।
कुछ तुममें प्रवेश करता है। फिर तुम वशीभूत हो जाते हो, और तुम भूल जाते
हो कि तुम कहां जा रहे थे। तुम अपनी दिशा बदल देते हो; तुम इस विचार के
पीछे हो लेते हो। यह एक दुर्घटना ही है। तुम बच्चों की भांति हो। पतंजलि
कहते हैं कि यह विचारणा नहीं है। यह विचारणा की अनुपस्थिति वाली अवस्था
है यह विचारणा नहीं है। तुम भीड़ हो। तुम्हारे पास, तुम्हारे भीतर कोई
केंद्र नहीं है, जो सोच सके। जब कोई वितर्क के अनुशासन में बढ़ता है सम्यक
तर्क में, तब वह धीरे धीरे सोचने के योग्य बनता है। सोचना एक क्षमता है,
विचार क्षमता नहीं है, विचार दूसरों से सीखे जा सकते हैं; विचारणा कभी
नहीं। विचारणा तुम्हें स्वयं ही सीखनी होती है।
और यही है भेद पुराने भारतीय विद्यापीठों और आधुनिक विश्वविद्यालयों के
बीच। आधुनिक विश्वविद्यालयों में तुम विचारों को जुटा रहे हो। प्राचीन
विद्यालयों में, शान विद्यालयों में, वे सोचना विचारना सिखाते रहे थे, न कि
विचार।
विचारशीलता तुम्हारे आंतरिक अस्तित्व की गुणवत्ता है। विचारशीलता का
अर्थ क्या है? इसका अर्थ है तुम्हारी चेतना को बनाये रखना; समस्या से
साक्षात्कार करने को, सजग और जागरूक बने रहना। समस्या वहां मौजूद है, तुम
अपनी समग्र जागरूकता के साथ उसका सामना करो। और तब एक उत्तर उठ खड़ा होता
है एक प्रत्युत्तर। यह है विचारणा।
पतंजलि योगसूत्र
ओशो
No comments:
Post a Comment