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Sunday, March 6, 2016

सेवा का सूत्र !

किसी की भी गर्दन दबानी हो तो पैर दबाने से शुरू करना चाहिए यह सेवा का सूत्र है। पहले पैर दबाओ। पैर जब दबाओगे तो कोई भी मना नहीं करता, वह पैर पसार देगा कि मजे से दबाओ। फिर दबाते दबाते बढ़ते जाना आगे! दबाते दबाते उसको भी झपकी आने लगेगी, नींद भी आने लगेगी, और तुम भी धीरे धीरे बढ़ोगे, उसका विश्वास भी तुम पर बढ़ता जाएगा, फिर तुम उसकी जेब भी काट लेना, फिर उसकी गर्दन भी दबा दोगे तुम तो उसको पता नहीं चलेगा। मगर धीरे धीरे करना; एकदम से मत कर देना। एकदम से पैर से छलांग मत लगा देना गर्दन पर, नहीं तो वह भी चौंक कर बैठ जाएगा।


एक वैज्ञानिक प्रयोग कर रहा था। उसने एक मेढक को उबलते हुए पानी में डाला। मेढक छलांग लगा कर बाहर निकल गया। एकदम! निकल ही जाएगा। उबलता हुआ पानी, मेढक क्यों उसमें रहेगा? ऐसी छलांग लगाई मेढक ने जैसी जिंदगी में कभी भी नहीं लगाई होगी! फिर उसने उसी मेढक को साधारण पानी में रखा। मेढक के ही शरीर के तापमान का पानी। और उसको धीरे धीरे गरम करना शुरू किया, बहुत आहिस्ता आहिस्ता! चौबीस घंटे, धीरे धीरे उबलने तक लाया और मेढक उबल गया और मर गया, छलांग नहीं लगाई। क्योंकि धीमे धीमे गरम हुआ। इतने धीमे गरम हुआ कि मेढक उतनी गर्मी से राजी होता चला गया। इतने आहिस्ता आहिस्ता गरम हुआ।


मैं एक पहलवान को जानता हूं, जिसने एक भैंस के बच्चे को पहले दिन से ही उठा कर घूमना शुरू किया। रोज भैंस का बच्चा बड़ा होने लगा, पड़वा बड़ा होने लगा। और पहलवान रोज उसे लेकर घूमता ही रहा। घंटों घूमता। पड़वा बड़ा होता गया और पहलवान भी उसे रोज लेकर घूमता गया। वह दिन भी आ गया जब पड़वा पूरा का पूरा भैंसा हो गया, मगर पहलवान उसे उठा ले और घूम ले धीमे धीमे बात होती रही। उतना उतना पहलवान भी समायोजित होता गया।


किसी के पैर दबा कर एकदम गर्दन मत पकड़ लेना। नहीं तो वह भी चौंक कर बैठ जाएगा। आहिस्ता आहिस्ता! 

वही तुम्हारे राजनेता करते हैं। धीरे धीरे! पहले सेवा करते हैं। और अगर आदमी की सेवा से नहीं तो जो बहुत होशियार हैं, वे गऊ सेवा से शुरू करते हैं। बड़ी दूर से शुरू करते हैं! कहां गऊ सेवा और कहां दिल्ली! कहां “पिंजरापोल” और कहां “दिल्ली” मगर पिंजरापोल से दिल्ली पहुंचेंगे वे। गऊरक्षा से शुरू करते हैं।


कोई हरिजन की सेवा से शुरू करता है। कोई अनाथालय खुलवाता है। कोई अस्पताल बनवाता है। कोई विधवाश्रम चलवा देता है। धीरे धीरे चलते चलते आखिर दिल्ली आ  ही जाती है।

राम दुवारे  जो मरे 


ओशो 


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