‘महेन्द्र!
एक ही नुस्सा है : बुद्धि नहीं होनी चाहिए। या हो तो बिलकुल न्यूनतम
होनी चाहिए। बुद्धि हो तो फिर राजनीति में सफल न हो पाओगे। वहां बुद्धओं की
गति है। क्योंकि राजनीति मैं बुद्धओं के अतिरिक्त और कोई उत्सुक नहीं
होता। सफलता की तो बात दूर; जिनके पास कुछ बुद्धि है, कुछ चैतन्य का निखार
है वे गीत रचेंगे, वीणा बजाएंगे, नृत्य में उतरेंगे, ध्यान में डूबेंगे,
प्रार्थना करेंगे। बहुत कुछ है करने को उनके पास। जिंदगी बहुत बड़ी है और
जिंदगी में बड़े अनूठे- अनूठे अमृत के आयाम हैं। वे राजनीति की कीचड़ में
पड़ेंगे! किसलिये? राजनीति तो उनके लिये है जिनके लिये कुछ और नहीं।
जो मूर्ति नहीं बना सकते, जो चित्र नहीं रंग सकते, जो गीत नहीं गा सकते,
जो कुछ भी नहीं कर सकते-उन सब अयोग्यों के लिये राजनीति है। आखिर अयोग्यों
के लिये भी तो कुछ होना चाहिए। जिनमें और कोई योग्यता नहीं है उनमें
राजनीति की योग्यता होती है।
राजनीति के लिये बुद्धि नहीं चाहिए। क्योंकि बुद्धिमान आदमी इतनी
बेईमानी नहीं कर समता; कुछ तो सोचेगा बुद्धिमान आदमी इतने धोखे नहीं दे
सकता। कुछ तो विचारेगा! बुद्धिमान आदमी इतने झूठ नहीं बोल सकता, आखिर खुद
की आत्मा कचोटेगी। और राजनीति तो सिर्फ झूठे आश्वासन हैं। सिर्फ झूठ पर
झूठ। अत्यंत सोई हुई चेतना चाहिए राजनीति में सफल होने के लिये।
शहर में एनसेफेलाइटिस (मस्तिष्क -ज्वर ) से अनेक मौतों की खबर पढ़कर
चिंतित हुई पत्नी अपने राजनेता पति से कहा : क्यों, पढ़ा आपने, यह रोग यहां
भी फैल गया!
राजनेता ने कहा : तो क्या हुआ?
तो क्या? पत्नी बोली, ‘मुझे बड़ा डर लग रहा है कि कहीं तुम्हें…?
‘घबराओ मत!’ राजनेता ने कहा, ‘इस रो का संक्रमण केवल मस्तिष्क हो तभी होता है।
‘आखिर मस्तिष्क हो तो ही मस्तिष्क का ज्वर हो सकता है।
हंसा तो मोती चुने
ओशो
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