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Thursday, March 31, 2016

प्रवंचना की बूंदें

बुद्ध एक छोटी सी और बड़ी मीठी कहानी कहा करते थे, वह मैं आपसे कहूं। सुनी भी होगी। लेकिन शायद इस अर्थ में सोची नहीं होगी। बुद्ध कहते थे, भाग रहा है एक आदमी जंगल में। दो कारणों से आदमी भागता है। या तो आगे कोई चीज खींचती हो, या पीछे कोई चीज धकाती हो। या तो आगे से कोई पुल  खींचता हो, या पीछे से कोई पुश  धक्का देता हो। वह आदमी दोनों ही कारणों से भाग रहा था। गया था जंगल में हीरों की खोज में। कहा था किसी ने कि हीरों की खदान है। इसलिए दौड़ रहा था। लेकिन अभी अभी उसकी दौड़ बहुत तेज हो गई थी, क्योंकि पीछे एक सिंह उसके लग गया था। हीरे तो भूल गए थे, अब तो किसी तरह इस सिंह से बचाव करना था। भाग रहा था बेतहाशा, और उस जगह पहुंच गया, जहां आगे रास्ता समाप्त हो गया था। गड्ढ था भयंकर, रास्ता समाप्त था। लौटने का उपाय न था।


लौटने को उपाय कहीं भी नहीं है  किसी जंगल में और किसी रास्ते पर। और चाहे हीरों के लिए भागते हों और चाहे कोई मौत पीछे पड़ी हो, इसलिए भागते हों, लौटने का कोई उपाय कहीं भी नहीं है। असल में लौटने के लिए रास्ता बचता ही नहीं। समय में सब पीछे के रास्ते नीचे गिर जाते हैं। पीछे नहीं लौट सकते, एक इंच पीछे नहीं लौट सकते। वह भी नहीं लौट सकता था, क्योंकि पीछे सिंह लगा था। और सामने रास्ता समाप्त हो गया था। बड़ी घबराहट में, कोई उपाय न देखकर, जैसा निरुपाय आदमी करे, वही उसने किया। गड्ढ में लटक गया एक वृक्ष की जड़ों को पकड़कर। सोचा कि तब तक सिंह निकल जाए, तो निकलकर वापस आ जाए। लेकिन सिंह ऊपर आ गया और प्रतीक्षा करने लगा। सिंह की भी अपनी वासना है। कभी तो ऊपर आओगे।


जब देखा कि सिंह ऊपर खड़ा है और प्रतीक्षा करता है, तब उस आदमी ने नीचे झांका। नीचे देखा कि एक पागल हाथी चिंघाड़ रहा है। तब उसने कहा कि अब कोई उपाय नहीं है। उस आदमी की स्थिति हम समझ सकते हैं, कैसे संताप में पड़ गया होगा! लेकिन इतना ही नहीं, संताप जिंदगी में अनंत हैं। कितने ही आ जाएं तो भी कम हैं। जिंदगी और भी दे सकती है। तभी उसने देखा कि जिस शाखा को वह पकड़े है, वह कुछ नीचे झुकती जाती है। ऊपर आंखें उठाईं तो दो चूहे उसकी जड़ों को काट रहे हैं। बुद्ध कहते थे, एक सफेद चूहा था, एक काला चूहा था। जैसे दिन और रात आदमी की जड़ों को काटते चले जाते हैं। तो हम समझ सकते हैं कि उसके प्राण कैसे संकट में पड़ गए होंगे।


लेकिन नहीं, आदमी की वासना अदभुत है। और आदमी के मन की प्रवंचना का खेल अदभुत है। तभी उसने देखा कि ऊपर मधुमक्खी का एक छत्ता है और मधु की एक एक बूंद टपकती है। फैलाई उसने जीभ अपनी, मधु की एक बूंद जीभ पर टपकी। आंख बंद की और कहा, धन्यभाग, बहुत मधुर है। उस क्षण में न ऊपर सिंह रहा, न नीचे चिंघाड़ता हाथी रहा, न जड़ों को काटते हुए चूहे रहे। न कोई मौत रही, न कोई भय रहा। एक क्षण को वह मधुर…। कहा उसने, बहुत मधुर है, मधु बहुत मधुर है!


बुद्ध कहते थे, हर आदमी इसी हालत में है, लेकिन मन मधु की एक एक बूंद टपकाए चले जाता है। आंख बंद करके आदमी कहता है, बहुत मधुर है। स्थिति यही है, सिचुएशन यही है। पूरे वक्त यही है। नीचे भी मौत है, ऊपर भी मौत है। जहां जिंदगी है, वहां सब तरफ मौत है। जिंदगी सब तरफ मौत से घिरी है। और प्रतिपल जीवन की जड़ें कटती जा रही हैं अपने आप। जीवन रिक्त हो रहा है, चुक रहा है।  एक एक दिन, एक एक पल। और जीवन की.. जैसे कि रेत की घड़ी होती है और एक एक क्षण रेत नीचे गिरती चुकती जाती है। ऐसे ही जीवन से समय चुकता जाता है और जीवन खाली होता चला जाता है। लेकिन फिर भी एक बूंद गिर जाए मधु की, स्वप्न निर्मित हो जाते हैं, आंख बंद हो जाती है। मन कहता है, कैसा मधुर है! और जब तक एक बूंद चुके, समाप्त हो, तब तक दूसरी बूंद टपक जाती है। मन प्रवंचना की बूंदें टपकाए चला जाता है।

ईशावास्य उपनिषद 

ओशो 


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