एक स्कूल में एक शिक्षक ने पूछा एक
होटल-मालिक के बेटे से, कि पचास बाराती आए हो, तो जितनी दाल लगती है,
तो यदि एक सौ पचास बाराती हों, तो उससे
कितने गुना ज्यादा दाल लगेगी? उसके बेटे ने कहा दाल तो
उतनी ही लगेगी; सिर्फ मिर्च और पानी की मात्रा बढ़ानी
पड़ेगी। होटल मालिक का होनहार बेटा है। शिक्षित हो रहा है, दीक्षित हो रहा है।
संसार में भरोसा भूल है। भरोसा किया कि
भटके। संदेह सार है। संसार में मानकर ही चलना, कि सभी दुश्मन है, कोई
मित्र नहीं। क्योंकि जिसको भी मित्र माना वही से संसार में गिराव शुरू हो जाएगा।
संसार को तो शत्रु मानना। अगर किसी को मित्र कहो भी, तो
कहना भर; मानना कभी नहीं।
यही तो कौटिल्य और मेक्यावली की शिक्षा
है--किसी को मित्र मत मानना। मित्र को भी शत्रु की तरह ही जानना, ऊपर-ऊपर मित्रता दिखाना,
भीतर शत्रुता मानना। क्योंकि अगर मित्र मान लिया, तो भरोसा कर लिया। जिसका भरोसा किया, वही धोखा
देगा।
ठीक उलटी शिक्षा है जीसस की, शत्रु को भी मित्र
मानना। तो जिसने पहली शिक्षा में काफी पारंगत कुशलता पा ली है, उसे दूसरी शिक्षा बड़ी मुश्किल हो जाएगा। सत्य की तरफ जाना हो तो
श्रद्धा चाहिए। संसार की तरफ जाना हो तो जितनी ज्यादा संदिग्ध मन की दशा हो,
उतना ही सहयोगी है। और संसार के लिए हम तैयार करते हैं।
तो अश्रद्धा का तो हमारे पास बड़ा निष्णात, कुशल आयोजन होता है।
श्रद्धा का कोई अंकुर भी नहीं होता। इसलिए जब हम परमात्मा की तरफ भी मुड़ते हैं,
तो वही शंकालु हृदय लेकर मुड़ते हैं, जो
संसार में काम आता था। फिर वही बाधा बन जाता है। द्वार तो सदा खुला है उसका। अगर
बंद है, तो तुम्हारा हृदय बंद है। आंख बंद है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी डाक्टर के पास गई
थी। बीमार थी। वह उसे भीतर के कक्ष में ले गया, जहां जांच-पड़ताल करेगा। टेबल पर लेटते वक्त
उसने कहा, एक बात; इसके पहले की
बात मेरी जांच करें, नर्स को भीतर बुला लें।
डाक्टर थोड़ा नाराज हुआ। उसने कहा, क्या मतलब? क्या मुझ पर तुम्हारा भरोसा नहीं?
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा, कि आप पर तो पूरा भरोसा
है। बाहर बैठे मेरे पति पर भरोसा नहीं। नर्स को भीतर ही बुला लें। पति और नर्स
बाहर अकेले छूट गए हैं।
प्रतिपल--जिन से तुम्हारा प्रेम है और जिन
से तुम कहते हो, कि हमारा प्रेम है, उन पर भी भरोसा नहीं।
संसार में प्रेम पाप है, घृणा गणित है। और यही
तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा है; इसकी ही पर्त दर पर्त
तुम्हारे चारों तरफ जमी है। इसलिए जब तुम किसी दिन संसार में थककर परमात्मा के
द्वार पर दस्तक देते हो, दस्तक व्यर्थ चली जाती है।
क्योंकि द्वार तो बंद ही नहीं है; द्वार तो खुला ही है।
तुम जिस पर दस्तक दे रहे हो वह तुम्हारी ही खड़ी की हुई दीवाल है। तुम अपनी ही
दीवाल पर दस्तक दे रहे हो। परमात्मा का द्वार बंद कैसे हो सकता है? तुम्हारा ही संस्कारों का जाल तुम्हें चारों तरफ से घेरे है। तुम ही
गलत हो गए हो।
और जब तब यह गलत होना ठीक न हो जाए तब तक
लाख सिर पटकें दादू, कबीर, तुम्हें लगे भी कि तुम समझ गए, फिर भी तुम समझ न पाओगे। तुम्हारी समझ भी कोई काम न आएगी। क्योंकि
तुम्हारी जो जीवन-स्थिति है, जो ढांचा तुमने बना लिया है,
वह मूलतः सत्य-विरोधी है।
पीव पीव लागी प्यास
ओशो
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